सबका है स्वार्थ का रोना,
पर रोने से क्या ही होना,
जी लो जो पल मिला हो,
इस पल को क्यूं है खोना,
बदलाव खुद में करें ना कोई,
चाहे बहती गंगा में हाथ धोना।
सुख दुःख एक दूजे के ना देखे,
अपने काम को हाथ सब सेंके,
स्वर्णिम मौका लगता है सबको,
चाहे मतलब के बीज सब बोना,
बदलाव खुद में करें ना कोई,
चाहे बहती गंगा में हाथ धोना।
ऐसे कहां कभी विकास होगा,
कैसे सुख का आभास भी होगा,
खुशियां अधूरी सी हैं लगती,
मानसिकता को ना रखो बौना,
बदलाव खुद में करें ना कोई,
चाहे बहती गंगा में हाथ धोना।