कैसी विडंबना है ये,
क्या हालात हो गए?
घर के ही चिराग ही
अपने घर को जला रहे
भटक गए हैं राह
भ्रमित हो गए हैं
अपना भला बुरा  नहीं पहचानते 
हिंसा, क्रोध  को ही
अपना हथियार मानते।
कुछ मौका परस्त इनको
गुमराह कर रहे
आग को भड़काने में
घी का काम कर रहे
सेंक रहे रोटियां अपनी
देश जल रहा है
मूक दर्शक बन 
सारे देख रहे।
हर तरफ उठ रहीं लपटें
 विनाश हो रहा
बनना था जिनको रक्षक
वह भक्षक बन गए हैं
थामनी थी जिनको
देश के रक्षा की बागड़ोर
उनके ही हाथों 
देश जल रहा है।
किसकी बात सुनेंगे ये,
कोन इनको समझाएगा ?
कोन मार्गदर्शक बन,
सही राह दिखायेगा ?
हिमलेश वर्मा
आगरा यू पी
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