गांव से थोड़ी दूर छोटकी तलैया के उस पार जो आठ दस फूस की टूटी फूटी झोपड़ियां दिख रही थी , अरे वही … जहां से एक रास्ता ससुर खदेरी नदी को जाता है और दूसरा रास्ता जंगल की ओर जाता है जहां से अक्सर भेड़िया उन झोपड़ियों के सामने बंधी हुई बकरियों को अपना शिकार बना लेता है । वहीं पर तो बसा हुआ था एक छोटा सा पुरवा… जहां इक्के दुक्के लोग ही अपना बसेरा बनाए हुए थे। कुल आठ दस घर रहे होगें। जिसमें एक घर बड़की अम्मा का भी था । वही पुरवा उन घरों का परिवार था समाज था, कुल दुनिया थी उनकी सुख दुख बांटने के लिए उन्हें शहर बजार जाने की जरूरत नहीं होती थी वो लोग तो एक दूसरे के साथ हंस बोल कर ही अपना मनोरंजन कर लेते थे। दिन भर लोगों के खेतों में काम करके या मेहनत मजूरी करके जो चार पैसा उन्हें मिलता उससे शाम को दाल चावल पिसान खरीद के लाते और परिवार के साथ मिलकर खाते । जब कभी कोई काम नहीं मिलता तब भी उनके चेहरे पर संतोष रहता। अगर किसी की झोपड़ी में खाना बना है और बगल वाली झोपड़ी में लोग भूखे बैठे हैं तो खाना खाने बैठे लोगों के गले से कौर नीचे नहीं उतरता था। पूरे पुरवे के लोग का चूल्हा साझा था। कोई भी किसी के भी दरवाजे से दाल सब्जी ले सकता था। किसी के घर में नमक घट जाए तो चट से दौड़कर दूसरे घर से ले लिया जाता। हर घर का बच्चा सारे के प्यार और डांट का अधिकारी होता था । छोटे छोटे बच्चों की तेल मालिश करनी हो या उन्हें खिलाना पिलाना हो किसी भी झोपड़ी की बड़ी बूढ़ी बिना किसी भेदभाव के पूरे अधिकार से कर देती थी । और उसी अधिकार से वो उस पुरवे की किसी भी बहुरिया को डांट भी देती थी। उन दिनों चाचा , दादा , मामा, बुआ, मौसी , जैसे प्यारे प्यारे रिश्ते केवल एक घर के अंदर ही सीमित नहीं रहते थे बल्कि पूरे गांव में ही बिखरे रहते थे।
किसी भी घर की नई बहू हो, पूरा गांव की औरतें उसे देखने , सीख देने जाती थी। नई बहुरिया उन्हें उनके उम्र और पद के अनुसार आजी, चाची, बुआ , ननद , आदि रिश्ते जोड़कर उनका सम्मान करती थी। उसके मायके से आई हुई कलेवे की पूरियों और मीठे पुए पर पूरे गांव का हिस्सा था, और अगर भूल से कोई घर छूट जाता तो पूरे गांव में यह बात तीर की तरह फैल जाती।
अरे ओ सुखिया की महतारी…. तनी सुनो ..
का जिज्जी…
तुमका कुछ खबर है कि नाय.. भरोसवा की दुलहिन के नैहरे से गौने मां जौन बैना आवा रहा … ऊ रामफल की भौजी के घरे नाही पहुंचा…
हाय दईया ….. बतावा केतना बड़ा अंधेर भवा है… आज तलुक तो अइसा कब्बो नाही भवा। भगवान जाने भरोसे की महतारी की बुद्धी भरिष्ट कैसे होई गै। राम राम।
हां बहिनी …. लागत है भरोसवा का बियाह कईके ओहकी माई घमंड के मारे बौराय गई है जौन अब गांव घर के लोगन का नाही चीन्हत।
सही कहत हौ जिज्जी… तनी गोर नार बहुरिया मिल गै तो ओहके पांव अब धरती पै नाही पड़त। नैकी गुलाबी रंग की रंगाई धोती पहिर कै और बहुरिया के जैसन छागल छमकाती पूरे गांव मां डोल रही है। अपनी उमिर का तनिको लिहाज़ नाही रहा। अजहु छैल छबीली बने का परेसान पड़ी है।
जाय दे बहिनी ..…हमका का करे का है… ऊ जाने ओकर काम जाने… आज गांव मां सब से मेल मिलाप करि के रहिएं तौ हमहू लोग उनकर काम काज मां शामिल होबै … नाही तौ ऊ अपने घर मां खुस अउर हम सब अपने घर मां …। हाथ नचाती हुई गांव भर की रिपोर्टर के रूप में जानी जाने वाली गोलकी आजी धोती का उड़ता छोर पकड़ी और अपने दांतों से दबाकर खेतों की ओर बरसीम काटने बढ़ चली।
क्रमशः
लेखिका
संगीता शर्मा
सहायक अध्यापक