बडे़ होने पर ही बचपन के वो दिन आते है
दिन भर वो खेलने का जमाना याद आता है ,
रोज एक नया फसाना था ,
स्कूल न जाने के लिए रोना था, रोज नए बहाने ढूंढना था,
कभी मिट्टी से खेलना था तो कभी नंगे पैर दौडना था,
मन भर कर हंसना था और मन भर कर रोना था,
वो दिन भी कितने हसीन थे,
शैतानी करके भाग जाते थे, दांत दिखा के हसते थे,
न कोई चिंता, न गमो का ठिकाना था,
वो दिन तो खुशियों का खजाना था,
न कुछ बनने की चाहत थी,
हा , तितलियों को पकड़ने की फुसफुसाहट थी
मां से कहानी सुननी थी, रोज पिता के कंधों पर बैठना था,
बारिश मे कागज की नाव चलानी थी,
तो आसमान में उड़ते हुए जहाज के पीछे दौड़ना था,
सच मे बडे़ होने पर वो बचपन के दिन याद आते है l
प्रीती उपाध्याय@ l