गांव से ठीक उत्तर की दिशा में मुख्य मार्ग जो उसे नजदीकी कस्बे  से जोड़ता, कुछ वक्र गति से आगे बढता, दांयी और बांयी और छोटे छोटे रास्तों को जोड़ता जाता। उसी मार्ग पर लगभग आधा किलोमीटर की दूरी के बाद बांयी और की तरफ एक दगरा जो एक छोटे से जंगल की और जाता था। जंगल का अर्थ रीछ, शेर जैसे जंगली जानवरों के निवास स्थान से अलग एक सरकारी जगह जहाँ घने पेड़ थे। वैसे सरकारी संपत्ति तो जनता की ही माननी चाहिये। इसीलिये पूरे गाँव के लोग इसी जंगल से ईधन जुटाते। उसी जंगल और मुख्य मार्ग के मध्य दगरे के एक किनारे पर एक चबूतरे के ऊपर एक कुछ कच्चा, कुछ खपरैल का आशियाना जिसमें द्वार पर कोई फाटक भी न था। वैसे फाटक की जरूरत ही किसे थी। मढैया में रहने बाले बाबा के पास ऐसी क्या संपत्ति थी कि कोई चुराता। उसी जंगल के फलों और कंदमूलों से अपना जीवन चलाता, गांव से दूर रहकर भी दूर न था। पिछले दस सालों या उससे ज्यादा समय से भी वह सन्यासी यहीं था। हालांकि यह मढैया उसका आरंभ से निवास स्थल न थी। आरंभ में गांव के मंदिर में उसे श्रद्धा से जगह दी गयी थी। मंदिर में भगवान की उचित समय पर सेवा हो जाती। पर ऐसा अधिक दिनों तक न चल पाया। बाबा का नाम भले ही कोई नहीं जानता था। पर एक दिन पाखंडी, धूर्त, छली जैसे बहुत से नाम देकर उसे मंदिर से भगा दिया गया। पर वह भी अपनी जिद का पक्का, कहीं गया नहीं।
    बाबा को कभी किसी ने कोई धार्मिक पुस्तक पढते न देखा था। उसके संग्रह में कोई पुस्तक भी न थी। पर विभिन्न धार्मिक विषयों पर उसका ज्ञान अपार था। हालांकि अब उसका वह ज्ञान किसी काम का न था।
   पाखंडी बाबा पाखंडी किस तरह है, इसका किसी के पास कोई उत्तर न था। उसने कब कौन सा धर्म विरुद्ध कार्य किया था, इसका भी कोई उत्तर नहीं। धूर्त ने कब कहाॅ अमर्यादित आचरण किया था, यह प्रश्न भी गौण था। फिर भी इसके ये नाम सत्य थे। आखिर उसने मुखिया की बेटी के प्रेम को जायज कहा था। मुखिया की बेटी और सोनू किसान के प्रेम को स्वीकार कराया था। दोनों के प्रेम की परिणति अपने ज्ञान जिसमें विधिक ज्ञान भी था, के उपयोग से संयोग में करायी थी। उसके बाद से ही वह गांव बालों के आंख की किरकिरी बन गया। ऐसा क्या सन्यासी जो दुनिया दारी में ही रमा रहे। प्रेम, शादी, विवाह सब संसार के ही प्रपंच हैं। सन्यासी खुद इन प्रपंचों से ऊपर होता है और दूसरों को ऊपर उठाता है।
  वैसे रज्जो इस विषय में ज्यादा कुशल थी। पता नहीं कैसे उसे बाबा के कपट रूप का सबसे पहले पता चल गया। आरंभ से ही वह बाबा की विरोधी थीं। जब तक बाबा मंदिर में रहा, वह मंदिर न आयीं। और बाबा के मंदिर से हटते ही उसने खुद पवित्र गंगा जल से मंदिर को साफ किया। जैसे कि उसकी संगत में भगवान खुद अपवित्र हो गये हों।
  अब बाबा गांव से बहिष्कृत जरूर थे। गांव का कोई भी उनसे संबंध नहीं रखता था। पर क्या यह सत्य था। शायद नहीं। प्रेम में साथ जीने और मरने की कसम खाने बालों का खेबनहार बाबा ही था। मुखिया की बेटी के बाद भी आस पास के गांवों में जब भी कोई प्रेम कहानी अपना लक्ष्य पाती तो उसका एक श्रेय पाखंडी बाबा को जरूर जाता। प्रत्यक्ष में भले ही कोई बाबा का आदर न करे, पर सत्य यह भी था कि बाबा की मढैया किसी न किसी प्रेम पथिक को उसका मार्ग दिखाती ही रहती थी।
    कुछ दिनों आनाकानी करने के बाद आखिर सुजान भी रात्रि टोली के साथ निकला। कुछ घरों से लकड़ियां उठायीं। फिर चुपचाप एक तरफ निकल गया। साथ बाले युवक भी कुछ भ्रम में थे। कुछ समय बाद उसके वापस घर लौट जाने की ही संभावना थी। ऐसी कौन कल्पना कर सकता था कि आज की रात सुजान के कदम उस मढैया की तरफ बढ रहे हैं, जिसे पाखंड का केंद्र माना जाता था। सुजान भी अभी तक यही मानता था। पर अब उसका मन उसे वहीं खेंचे ले जा रहा था। वहीं से अपनी राह तलाशना चाहता था। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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