इतना सुनाने के साथ ही राज सिंह जरा रुके। खुद के मन और प्रेम की बातें अपनी युवा बेटी को सुनाकर जरा झिझके। भावों के प्रवाह में वे कह तो गये पर फिर पिता और बेटी के संबंधों की मर्यादा को याद कर शर्मिंदा हो गये। नैना भी पिता को शर्मिंदा होता समझ गयी। सचमुच यही पिता और बेटी के मध्य की एक दूरी होती है। वह खुद भी तो पिता को वरुण के विषय में बताते हुए बहुत सकुचाई थी। पिता माॅ की भूमिका कितनी भी निभा ले पर कुछ बातों में माॅ का स्थान नहीं ले सकता है।
कुछ देर शांत रह राज सिंह ने आगे कहना आरंभ किया।
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नैना। उसके बाद जो मेरी जिंदगी आरंभ हुई, उसे हर तरीके से सुखद जिंदगी कहा जा सकता है। रमा निश्चित ही प्रेम की देवी थी। मुझे नहीं याद कि रमा ने कभी भी मेरी इच्छा का सम्मान न किया हो। कभी भी मेरी बात का प्रतिवाद किया हो। खुशियों के दिन आगे बढ रहे थे। उन्हीं खुशियों में बृद्धि उस समय हुई जबकि रमा गर्भवती हो गयी। मुझे पितृत्व और रमा को मातृत्व का पद दिलाने बाला आने बाला था। पूरा परिवार खुश था। रमा का हम सब विशेष ध्यान रखते थे।
रिश्तेदारों से बातचीत के दौर में अक्सर बेटे के भावी आगमन की खुशियां मनायी जातीं। लगता है संतान के स्थान पर मनुष्य को केवल बेटों की ही चाहत होती है। मुख से वही निकलता है जो चिंतन हृदय की गहराई में बसा हुआ हो। पता नहीं कि क्या रमा खुद एक स्त्री होने के बाद भी इन भावनाओं से ग्रसित थी अथवा केवल पत्नी धर्म निभाते हुए शांत थी।
समय धीरे धीरे आगे बढता गया। रमा को समय समय पर डाक्टर को दिखाया जाता था। अनेकों बार भावी बेटे की पुष्टि करने की भी इच्छा हुई। पर फिर मन का एक कौना उस छुद्रता को धिक्कार देता। हालांकि बेटे की ख्वाहिश मन में पूरी तरह बैठ चुकी थी।
रमा की गर्भावस्था में डाक्टर द्वारा बतायी सतर्कता अपनाने के बाद भी एक दिन दुर्घटना घटित हो गयी। समय पूरा होने से पूर्व ही एक दिन रमा गिर गयी। डाक्टर ने सतर्कता से रमा और नवजात बेटी को बचा लिया। साथ ही एक अन्य सतर्कता – अब भविष्य में दूसरे बच्चे के विषय में मत सोचना। रमा का गर्भाशय कुछ इस तरह क्षतिग्रस्त हो गया था कि भविष्य में गर्भ धारण करना उसके जीवन पर भारी पड़ सकता था।
तुम हमारे घर में लक्ष्मी बनकर आयीं। खुशियां भी मनायीं। पर सत्य तो यही है कि खुशियां हमेशा मन का विषय है। मन तो बेटा न हो पाने के गम में दुखी था। बेटी की मनोहर मुस्कान भले ही उस दुख को कम कर देती पर फिर से वही दुख। काश एक बेटा होता। बेटे के बिना क्या जीवन। पितृत्व का अर्थ ही बेटे का पिता बनना है। यह सुख निश्चित ही मेरे भाग्य में नहीं है।
आज मैं कह सकता हूं कि बेटियां कभी भी बेटों से कम नहीं होती। पर उन दिनों ऐसी सोच संभव नहीं थी। ऊपर से कोई भी इस तरह समझाने बाला न था। ईश्वर की इच्छा मान स्वीकार कर लेने में भी सलाहों में भी एक निर्बलता का अहसास होता। पिता होने के बाद भी पितृत्व स्वीकारने की इच्छा न थी। मनुष्य को अपने प्रयत्न बंद नहीं करने चाहिये। संसार में अच्छे डाक्टरों की कमी नहीं है। अनेकों बार तो दवा से अधिक दुआ फलीभूत होती है। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जबकि डाक्टरों द्वारा असमर्थता व्यक्त करने के बाद भी किसी की दुआ इस तरह फलीभूत होती है कि मैडीकल साइंस भी चकित रह जाता है।
पुरुषत्व के अहम में मैं भूल रहा था कि ईश्वर का कोई भी निर्णय गलत तो नहीं होता। एक बेटे की चाह लेकर कितने डाक्टरों के चक्कर लगाये। उससे आगे बढकर अनेकों मंदिरों में आशीर्वाद लिया। अनेकों पीरों की दरगाहों पर चद्दर चढायी। बेटे की चाहत में मैं यथार्थ को देखकर भी अनदेखा कर रहा था। सत्य तो यही है कि आज मेरे जिस प्रेम की कहानियाॅ सुनायी जाती हैं, मेरा वह प्रेम ही एक बेटे की चाहत में कहीं लुप्त हो चुका था। डाक्टर की चेतावनी के बाद भी मुझे अपनी ही पत्नी के जीवन से खिलवाड़ करने में संकोच नहीं हो रहा था।
आज मुझे लगता है कि रमा को मेरा विरोध करना चाहिये था। उसे मेरी इच्छा को नकारना चाहिये था। गलत को स्वीकार करना कोई प्रेम तो नहीं।
बेटी। सत्य तो यही है कि एक पत्नी का धर्म उससे अधिक व्यापक है जितना कि समझा जाता है। पति को सही राह दिखाना पत्नी का धर्म है। सत्य यही है कि जब नर गलत मार्ग पर चले, उस समय नर को सही राह दिखाना नारी का ही धर्म है।
डाक्टरों की आंशका सही सिद्ध हुई। रमा मुझे और तुम्हें छोड़कर चली गयी। सत्य तो यही है कि दूसरा विवाह न कर मैं आजतक अपनी भूल का प्रायश्चित ही तो कर रहा हूं। समाज को यही दिखाने का प्रयास कर रहा हूं कि बेटी भी निश्चित ही बेटा के बराबर ही तो है।
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नैना ने पहली बार पिता से कुछ अलग पाठ पढा ।निश्चित ही प्रेम समर्पण है। पर सत्य यही है कि प्रेम समर्पण से बहुत आगे बढकर पूर्ण समर्पण है। जहाँ विरोध भी वास्तव में विरोध न होकर आत्म सुधार ही तो होता है। जब पति और पत्नी दोनों एक शरीर दो प्राण कहे जाते हैं तो खुद के ही एक शरीर को सही मार्ग दिखाना निश्चित ही कोई विरोध तो नहीं। वास्तव में यही यथार्थ प्रेम है। नैना ने अपने भविष्य के कर्तव्यों का निश्चय कर लिया है। निश्चित ही वह अपने वैवाहिक जीवन में वह भूल नहीं करेगी जो उसकी माॅ रमा ने की थी। स्त्री होने के कारण नैना अपनी जिम्मेदारी हर तरीके से निभाएगी। उसकी जिम्मेदारी में सही को स्वीकार करना भी होगा, तो गलत का विरोध भी। कभी मनाना भी होगा तो कभी रूठना भी। नैना के वैवाहिक जीवन में वह सब होगा जो आवश्यक होगा। पर सत्य यही है कि उसका वैवाहिक जीवन प्रेम से ही भरा रहेगा।
समाप्त
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’