राक्षसराज जलंधर और भगवान शिव में भयंकर युद्ध हो रहा था । राक्षसराज जलंधर ने काम ही ऐसा किया था कि भोलेनाथ क्रोध में हुंकार उठे थे । जलंधर ने माता पार्वती पर अपनी कुदृष्टि जो डाली थी । ताकत के घमंड में वह भूल गया था कि माता पार्वती “आदि स्वरूपा प्रकृति मां” ही हैं । जब मस्तिष्क में “काम” का आवेग बढ जाता है तब सबसे पहले “विवेक” मर जाता है । कामांध व्यक्ति को हर स्त्री “भोग्या” नजर आती है । वह रिश्तों , उम्र और लोकलाज सबको भूल जाता है । भगवान शिव ने जलंधर पर अपनी संपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर लिया मगर जलंधर का बाल भी बांका नहीं हुआ । सब लोग हैरान और परेशान थे । देवता जलंधर की अपरिमित शक्ति देखकर भयभीत थे । कुछ देवता कह रहे थे कि जलंधर भगवान शिव के तेज से ही उत्पन्न हुआ है इसलिए वह भगवान शिव के समान प्रतापी और बलशाली है । कुछ देवता कह रहे थे कि राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य ने पता नहीं जलंधर को कौन से अस्त्र-शस्त्रों की विद्या दी है कि वह विश्व में अजेय बन गया है । इन सब बिंदुओं पर चर्चा चल ही रही थी कि ब्रह्मा जी ने विष्णु भगवान से कहा की जलंधर की शक्ति का स्रोत उसकी पतिव्रता पत्नी “वृंदा” है । उसके पतिव्रत धर्म से ही जलंधर का बाल भी बांका नहीं हो पा रहा है । यदि उसके सतीत्व को “खंडित” कर दिया जाये तो जलंधर का वध संभव है । भगवान विष्णु को क्या नहीं पता ? वे तो अंतर्यामी हैं । लोगों के मन में क्या है ये बात वे भली भांति जानते हैं । फिर ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु को यह सब क्यों कहा ? विष्णु भगवान मुस्कुराये । उन्हें पता था कि किसी सती और पतिव्रता स्त्री का सतीत्व भंग करना क्या होता है और उसका परिणाम क्या हो सकता है ? लेकिन भगवान विष्णु तो “जन कल्याण” के लिये कुछ भी कर सकते हैं । अगर जलंधर वध का एकमात्र यही विकल्प है तो यही करना पड़ेगा । उन्होंने सृष्टि की रक्षा के लिये एक पतिव्रता स्त्री के सतीत्व को भंग करने का निश्चय कर लिया । भगवान विष्णु ने एक साधु का वेष बनाया और महासती वृन्दा के पास पहुंच गये । वृन्दा ने जब एक साधु को देखा तो वे उनकी सेवा करने लगी । तब साधु बने भगवान विष्णु ने वृन्दा से कहा कि युद्ध में जलंधर की मृत्यु हो गई है । यह सुनकर वृन्दा को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ और वह कहने लगी कि जब तक वह जीवित है तब तक उसके पति की मृत्यु होना असंभव है । तब भगवान विष्णु ने माया से जलंधर का सिर कटा शरीर वृन्दा को दिखाया जिसे देखकर वृन्दा का आत्मविश्वास डगमगा गया और वह जलंधर को जीवित करने के लिये साधु बने भगवान से विनय करने लगी । तब भगवान विष्णु ने माया से जलंधर को जीवित कर दिया और स्वयं जलंधर के शरीर में प्रविष्ट हो गये । इस प्रकार जलंधर को सामने जीवित देखकर वृन्दा प्रसन्न हो गई और वह जलंधर को लेकर महल में आ गई और सुख पूर्वक जलंधर के साथ “रमण” करने लगी । इस प्रकार वह जलंधर के वेश में भगवान विष्णु की “अंकशायनी” बन गई । वृन्दा का सतीत्व खंडित हो चुका था । जैसे ही वृन्दा का सतीत्व खंडित हुआ वैसे ही जलंधर कमजोर हो गया और शिवजी ने अपने त्रिशूल से उसका वध कर दिया । जलंधर का पार्थिव शरीर वृन्दा के सामने आ गिरा जिसे देखकर वृन्दा सकते में आ गई । अब भगवान विष्णु भी अपने वास्तविक स्वरूप में आ गये थे । भगवान विष्णु को देखकर और सारी स्थिति को समझ कर वृन्दा दंग रह गई और क्रोध में आकर बोली “प्रभु, आप तो भक्त वत्सल हैं, दयानिधि हैं, करुणा के सागर हैं , पाप भंजक हैं । फिर आपने मुझसे छल करके मेरा सतीत्व भंग क्यों किया ? आपने एक पतिव्रता स्त्री का सतीत्व भंग करके भयंकर अपराध किया है प्रभु । माना कि आप मेरे आराध्य हैं मगर मेरा सतीत्व भंग करके आपने जो अपराध किया है उसका दंड तो आपको भोगना ही होगा । आप इतने निर्दयी और पाषाण हृदय कैसे हो सकते हैं प्रभु ? मैंने तो कोई पाप कर्म भी नहीं किया था फिर भी आपने मेरा पतिव्रत धर्म नष्ट कर दिया, मेरा शील भंग कर दिया । आपका हृदय “शिला” की तरह कठोर क्यों है प्रभु ? जब आप इतने कठोर हैं तो क्यों नहीं आप “शिला” ही बन जायें ? इसलिए मैं सती वृन्दा अपने मृत पति जलंधर की शपथ खाकर आपको शाप देती हूं कि आप तुरंत एक “शिला” में परिवर्तित हो जायें” । महासती वृन्दा का चेहरा क्रोध से लाल हो गया था । क्रोध के कारण वह “भगवान और भक्त” का रिश्ता भी भूल गई थी । भगवान विष्णु तो बहुत ही धैर्यवान हैं । वृन्दा के शाप को भी चुपचाप सुनते और सहते रहे । फिर अपनी कोमल वाणी से वृन्दा का ताप हरते हुए बोले “मैं जानता हूं वृन्दा कि तुम महासती और पतिव्रता स्त्री हो । मेरी अनन्य भक्त भी हो । लेकिन तुम्हारा पति जलंधर अपनी शक्ति के मद में आकर देवी पार्वती पर कुदृष्टि डालने का पतित कृत्य कर बैठा था और उसने अपने पाप कर्मों से संपूर्ण ब्रह्मांड को संकट में डाल दिया था । जन कल्याण के लिए उसका वध किया जाना अति आवश्यक था । तुम्हारे सतीत्व रूपी अमृत से सिंचित होने के कारण वह मर नहीं रहा था इसलिए उसे मारने के लिए तुम्हारा सतीत्व खंडित करना अनिवार्य हो गया था । मैंने जो किया वह जन कल्याण के लिए था । तुमने जो किया (मुझे श्राप देकर) वह एक पतिव्रता स्त्री का स्वाभाविक आक्रोश था जो कि तुम्हारा नैसर्गिक कृत्य भी था । इसलिए तुम्हारा श्राप अवश्य फलीभूत होगा । मैं तुम्हारे पतिव्रत धर्म और भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं वृन्दा । इसलिए तुम कोई भी वर मांग सकती हो” । अब वृन्दा का क्रोध शांत हुआ तो उसे अपने दिये हुये श्राप पर ग्लानि होने लगी । वह तो भगवान विष्भणु की अनन्य भक्त है फिर वह अपने प्रभु को शाप कैसे दे सकती है ? सच ही कहा है कि क्रोध में भले बुरे का कुछ भी भान नहीं रहता है । उससे भी यह जघन्य अपराध हो चुका था । लेकिन अब क्या किया जा सकता था । अब तो तीर कमान से छूट चुका था जो वापस नहीं आ सकता था । वह भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़ी और क्षमा याचना करने लगी । भगवान विष्णु ने उसे उठाया और समझाया तब वह शांत हुई । फिर वह कहने लगी “प्रभो, मैं मन वचन और कर्म से अपने पति की सेवा करती रही हूं । मैंने सपने में भी किसी पुरुष का ध्यान नहीं किया था । आपने मेरे साथ रमण करके मुझे अपनी पत्नी बना लिया है । अब मैं इस पापी शरीर को लेकर जिंदा नहीं रहूंगी । इसलिए प्रभु, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो मुझे अपनी पत्नी का दर्जा दीजिए” । कहते हुये वृन्दा प्रभु के चरणों में गिर पड़ी । भगवान विष्णु ने कहा “तुम अगले जन्म में “तुलसी” बनोगी और मेरी (शालिग्राम) की पत्नी अवश्य बनोगी।  कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुम्हारा मेरे संग विवाह होगा । तुम हमेशा पूजनीय थीं और भविष्य में भी पूजनीय ही रहोगी । मुझे जो कोई भक्त प्रसाद चढायेगा वह बिना तुलसी के मेरे लिये अग्राह्य होगा अर्थात जब तक प्रसाद में तुलसी दल नहीं होगा मैं वह प्रसाद ग्रहण नहीं करूंगा । मेरे शिला रूप (शालिग्राम) पर तुम हमेशा ऊपर ही विराजमान रहोगी । तुम मुझे सबसे अधिक प्रिय रहोगी । यह मेरा वचन है” । और भगवान पाषाण रूप में (शालिग्राम) परिवर्तित हो गये । वृन्दा ने भी अपने तन में ज्वाला उत्पन्न कर ली और वह भस्मीभूत हो गई । वृन्दा की राख में से तुलसी प्रकट हुई जिसका विवाह शालिग्राम से संपन्न हुआ । भगवान को भी कभी कभी छल कपट से काम लेना पड़ता है । पर यह छल कपट जन कल्याण के लिये होता है न कि अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये । इसलिए देश और समाज की सेवा के लिए यदि कोई छल कपट किया जाये तो वह मान्य है । 

श्री हरि 

Spread the love
Shree Hari

By

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *