बस गया एक और शहर , जंगलो को काट कर
 हो गयी सड़कें चौड़ी, पगडंडियों को पाट कर |
 उड़ गए पंछी, छोड़ खुद से बनाया  आशियाँ
जुड़ गए शहर शहर, दो दिलो को बाँट कर |
 एक पल पर पैर रखकर, दूसरा पल दौड़ता
 ढूंढ़ता कल के सुकूं को अबके सुकूं को मारकर |
 झील नदियां लुप्त होती,प्रकृति अपने रंग खोती,
 हो रही बंज़र जमी, सिसकियाँ ले धरती रोती |
खेत की किस्मत भी अब,
हलों से लिखी जाती नहीं ,
रसायनिक खादों के उपयोग से,
काया निरोगी रह पाती नहीं |
कान भी तरसे यहाँ अब,
कोकिलों की आवाज को,
प्रकृति भी श्रंगार तरसे,
संगीत तरसे साज को |
काट रहे हम वो ही टहनी,
जिस पर हम बैठे हुए,
कौन समझाए यहाँ अब
ऐसे कालिदास को |
कर रहे वो ही प्रदूषित,
हो हवा,   ….या  हो पानी ,
आग सीने में लगाए,
जो बने सर्वज्ञ ग्यानी |
कौन अब पर्यावरण बचाये,
हम भी हैं सहमे हुए ,
लाएं किधर से अब बताओ,
ऐसे प्रकृति के दास को |
क्यूँ तपाता सूरज इतना,
क्यूँ हवा में है ज़हर  ,
क्यूँ समंदर उफ़न रहा,
क्यूँ धुंधली धुंधली है नज़र , 
पूर्व से पश्चिम में जाओ,
या घूमो उत्तर दक्षिण में तुम,
  हर शहर में धुंध फैली,
  परेशान हर है सहर |
जल के श्रोत सूख रहे,
समंदर फुफकारता हुआ ,
नदियां लुप्त हो रही , इंसान
और ग्रहो में जल तलाशता हुआ|
वो भी एक दौर था,
प्यासा कोई जाता न था ,
सबकी चौखट ऐसी थी,
भूखा कोई रहता न था |
अब है आलम इस तरह की,
होश भी बेहोश है,
खरीद रुपियों में रहा ,
जीने का हर श्रोत है |
एक शहर में रहकर भी
ईद का है चाँद वो
है प्रदुषण इस कदर
जैसे  अमावस की रात हो|
तेज नदियों का प्रवाह था ,
खुशियों की बहती थी नाव,
बारिशो में मन भीगता था,
दौड़ते थे नंगे पाँव |
अम्ल वर्षा अब तन जलाये,
नगर को खुद में डुबाये ,
प्रकृति  खुद के रूप बदले,
हर रोज नये गुल खिलाये |
इसका ख़ुब दोहन किया है
हमने प्रगति के नाम पे,
प्रकृति का दम हमने घोटा,
हमने खुद के हाथ से |
वैसे तो बतलाती रही ,
हमको समझाती रही,
करती रही प्यार हमको,
माँ सा दुलारती रही |
बोली हवा से सीख लो तुम,
निरंतर चलते है रहना |
और सीखो रात से की
न अंधेरो में बिखरना |
फूल से सीखो महकना,
चिड़ियों से हसके चहकना |
सूर्य से सीखो तुम तपना,
चंद्र सा शीतल तुम रहना |
धरती से सीखो क्षमा तुम,
और सीखो  धैर्य रखना |
हो ज़रूरत भी जहाँ पर ,
वर्षा बन तुम भी बरसना |
पर कोई न सीख उसकी,
घर करी मन में हमारे     -2
हाथो को दे काल रूप,
नष्ट किये प्रकृति के रूप सारे |
भूल हम ये भी गए की
क्या कहाँ पर बो रहे ?
ले कुल्हाड़ी हाथ में,
काट डाले वृक्ष सारे |
न रुके हम…. न थमे हम
आँख मूंदे दौड़ते हम ,
सिर्फ विकास का चोंगा ओढ़े
पत्थरों को सिर्फ गढ़े हम |
कब तलक बर्दाश्त करती ,
कब तलक सब कुछ ये सहती |
थी थकी पर, कब तलक बंद
आँख कर वो सोती रहती |
इसलिए उसने भी अब
शंखनाद है कर दिया,
युद्ध के लिए उसने तैयार
खुद को कर लिया |
या सुधर जाओ अब तुम,
या हारने को तैयार हो |
हूँ प्रलय से सृजित मैं ,
ये तुमको भी ख्याल हो |
कुछ भी बनाने में,… समय लगता है
तुम भी जानते |
युद्ध में ,… कुछ भी नहीं,…बचता है
तुम भी मानते |
देख लो रूप मेरे
हैं बहुत विकराल  से ,
आँधियों को भी मैं,
खती हूँ बहुत सभाल के |
बारिशे कब जलसमाधी,
बना देंगी नहीं तुम जानते |
भूकंप कब,… धरती
हिला देगी नहीं तुम जानते |
मेरे अंदर की अगन कब,
ज्वालामुखी बन फूटेगी  |
डोर जीवन की तुम्हारी
माला सी कब टूटेगी |
हूँ तुम्हारी माँ,…. इसलिए
प्यार से बतला रही |
हूँ,… रूप…. माँ काली का भी
ये भी तुमको समझा रही |
हाँ, दर्द होगा , …गम भी होगा
जब मेरे बच्चे रोयेंगे |
मेरे हाथो,… मेरी गोदी में… सर रख
जब चिर निंद्रा में सोयेंगे |
होगा तांडव…. ऐसा… वो की
खुद भी न बच पाऊँगी |
सब कुछ होगा ऐसा भी की
मातम भी न कर पाऊँगी |
क्यूँ करते हो विवश हमे तुम
खुद को चोटिल करने को |
क्यूँ रचते हो नए षड़यंत्र
कंधे बोझिल करने को |
साथ रहो खुशियां फैलाओ
चहको महको लहको तुम |
मेरा भी तुम मान बढ़ावो
इंद्र धनुष सा चमको तुम |
शुभचिंतक  हूँ,  मैं हर
बात तुम्हारी मानूँगी |
पर तुम भी अपना कर्तव्य निभाओ
ये भी मैं तुम से चाहूंगी |
आने वाले कल के लिए तुम भी
कुछ  तो पुरषार्थ करो |
तेरी हर कोशिश का मैं ,
गुणगान हमेशा गाउंगी || -2
 
  
  आलोक सिंह “गुमशुदा”
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