प्रकृति का स्वरुप पर्यावरण
स्वच्छंद अलमस्त विचरति हवा
हरियाली से भरी धरती
फूलों पर मंडराते इतराते भौरें तितलियां 
कल कल करते बहते झरने
बादलों की लुका छुपी में 
इन्द्रधनुषीय नजारें
विहंगम की कलरव करती छटा
मोतियों सी बारिश की बूँदें 
नभ और धरा का मिलन कराती 
खिलते खेत खलिहान 
जिसे संरक्षित करने का जिम्मा 
था हमारा 
पहले बाँटा धरा को हमने 
जो थी ना हमारी
फिर जंगलों को किया बर्बाद 
जो थी हमारी धरा का भूषण 
नदियों को गंदला कर 
मारी अपने पैर पर कुल्हाड़ी 
ये था अपने ही सर्वनाश का 
आह्वान अपने ही हाथों
जर्जर काया सी हुई पल्लवित धरा 
अपने ही हाथों किया हमने
अपनी माँ का आँचल सूना 
प्रकृति का मधुर संगीत 
खो गया कहीं 
नव जीवन की चाह लिए 
प्रकृति पुकार रही
भावुक आँखों से देख रही हमें
विध्वंसक प्रवृत्तियाँ त्याज्य 
सुदृढ़ मानसिकता
हृदय की कोमलता अपनाकर 
प्रकृति को दे सकते हैं नया जीवन
बढ़ाया हाथ है प्रकृति ने फिर से 
उसे थाम कर हो कृतज्ञ हम 
दोस्ती कर लें प्रकृति से मानव 
लौटा कर पर्यावरण की पवित्रता 
क्षमाप्रार्थी हो सकते हैं प्रकृति के 
 
आरती झा”आद्या”(स्वरचित व मौलिक)
सर्वाधिकार सुरक्षित©®
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