पर्यावरण का अर्थ है प्रकृति का आवरण- यानि, प्रकृति का हरा-भरा रूप, जहाँ प्रकृति के हर जीव को बराबर का महत्व रखता है-चाहे वह पेड़-पौधे हों, या पशु-पक्षी या फिर मानव! 
मगर, मानव ने हर काल में थोड़ा थोड़ा विकास कर, प्रकृति में बाकी जीवों के बजाय अच्छा और सुविधाजनक जीवन जीने की चाह को पूरा किया है! 
बदलते परिवेश के साथ मनुष्य की ज़रूरत, लालच और अहंकार, सब बढता गया और अब मनुष्य ने विकास का नाम ले कर प्रकृति पर अपना पूर्ण अधिकार करना शुरू कर दिया है, जिसके कारण प्रकृति का अपना संतुलन बिगड़ गया है। 
वैज्ञानिकों के अनेक अनुसंधानों में पर्यावरण की अनदेखी हुई और फिर हर कदम पर, ज़रूरत के नाम पर प्रकृति पर निर्भर रहा और इसी का शोषण भी करता रहा है! 
गंदगी और प्लास्टिक के अत्याधिक प्रयोग से हर जगह कचरे के ढेर लगा कर इसका निर्मल रूप और भी बिगाड़ दिया है!  कारखानों से निकलते धुएं ने आसमान और कैमिकल वाले कचरे ने जल संसाधनों को भी दूषित कर दिया है! 
यूँ तो प्रकृति का बडा सा विस्तार है
मगर न जानवर, न खग कोई, 
न पेड़ न पौधा, बस इक मानुष ही बीमार है
इक छोटा सा कीटाणु नहीं प्रकृति का प्रतिकार है!
हाँ! प्रसन्न तो धरती भी न होगी
आखिर माँ है, बच्चों के संत वह भी रोती ही होगी
यह जो रूदन सुन रहे हो न- 
यह कुछ नहीं मैया की चीत्कार है!
विकास की दौड़ में अंधे बहरे,
माँ के आंसू हम देख न पाए 
कई बार पुकारा हमको हम ही कभी न सुन पाए
बहुत चेताया था कुदरत ने, 
हम ही बस समझ ना पाए हैं
यह जो आज मौत बन कर आए हैं
देखो तो बिमारी है- 
समझो तो हमारे कर्मों के काले साए हैं। 
बढ़ती जनसंख्या के कारण इंसान को रहने के लिए भी अब ज़यादा जगह भी चाहिए इसलिए जंगलों, पहाडों का अतिक्रमण कर रहे हैं, अपनी सुविधा के अनुसार कहीं नदियों का रुख मोड़ देते है और कहीं उन्हें समतल कर उन पर निर्माण कर देते हैं। इन सबके कारण पृथ्वी पर संकट गहराता जा रहा है।  पर्यावरण में आते बदलाव के कारण असमय और अनियमित  बारिशों का पानी बहुत ज़्यादा निर्माण कार् के कारण पथरीली ज़मीन हैं समा नही पाता, इसलिए ज़मीन के नीचे का जलस्तर गिरता जा रहा है और ऊपर कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे जैसे हालात बनते जा रहे हैं। 
अचानक आए भूकंप बार-बार चेतावनी देते हैं कि पृथ्वी पर यह अतिक्रमण बोझ न गया है जिसे यह धरती सह नही पा रही है! 
हम हर साल साल में एक दिन पर्यावरण दिवस मना कर इसके संरक्षण की बड़ी बडी बातें करते हैं मगर, अगले दिन सब भूल कर पहले से हो जाते हैं। आज, ज़रूरत है कि  हम पर्यावरण के संरक्षण की जितनी बातें करते आए हैं, अब उन सब पर काम करें। 
आज, जंगल काटने की बजाय ज़यादा से ज़्यादा पेड़ लगाने की ज़रूरत है ताकि न पहाडों से मिट्टी फिसले, उस पेड़ों की जड़ें धरती का जलस्तर सुधारने में सहायक हो सकें।  
नदियों का रास्ता नहीं रोकना चाहिए और न ही उन्हें गंदा करना चाहिए- ता कि उनके बहाव में कोई रुकावट न आए। 
जहाँ तक हो सके, प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग करें।   प्लास्टिक के बैग इत्यादि की जगह हम कपडे के या जूट के बने बैग प्रयोग करें तो 
हमें ज़्यादा से ज़्यादा ऐसा सामान ही लेना चाहिए जो वापस इस्तेमाल करने योग्य हो! इस से कचरे की मात्रा कम होगी और विषैले कीटाणु नहीं फैलेंगे।
हमारी रसोई से ही ऐसा बहुत सा कचरा निकलता है जिसे खाद के रूप में प्रयोग कर के हम कैमिकल युक्त यूरिया के दुष्प्रभावों से बच सकते हैं और धरती की गुणवत्ता के साथ साथ अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान रख सकते हैं। 
हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम इस प्रकृति का एक अंश हैं, इसके स्वामी नहीं। इसका नाश कर के हम अंतः अपना ही विनाश कर रहे हैं!
स्वरचित- शालिनी अग्रवाल 
जलंधर
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