आखिर रोहन और रंजना की मुलाकात हुई। रंजना अपनी पेंटिग भी लेकर आयी थी। युवक और युवती की शक्ल रोहन और रंजना से मिल रही है, यह आज रोहन ने ध्यान दिया। पल्लवी और महेश भी आश्चर्य में पङ गये।
   मुलाकात से न तो रंजना की पेंटिंग का और न रोहन के स्वप्न के रहस्य खुले। पर फिर दोनों के मन में एक दूसरे के लिये आकर्षण होने लगा। फिल्मों की तरह मन में मधुर संगीत गूंजने लगा। दूसरी तरफ महेश और पल्लवी एक दूसरे को पसंद करने लगे।
   प्रेम का पूरा जमाना दुश्मन बताया जाता है। पर वास्तव में परेशानी ऊंच और नीच की होती है। ऊंच नींच के भी दो तरह के मापदंड होते हैं। पहला जाति और दूसरा आर्थिक स्तर। इसे ईश्वर की कृपा ही कहेंगे कि रोहन और रंजना एक ही वर्ण से संबंधित निकले। दूसरी तरफ महेश और पल्लवी भी एक ही विरादरी से संबंध रखते थे। आर्थिक स्तर पर दोनों की हैसियत बराबर थी। चारों पढाई में तेज थे। फिर उनके प्रेम में घर बालों को ऐतराज न हुआ। रोहन और महेश से रंजना और पल्लवी के माता पिता मिल चुके थे। एक बार रोहन के मम्मी और पापा भी रंजना से मिल लिये। पर प्रेम अलग जगह है और पढाई दूसरी जगह। इस विषय में चारों बच्चे समझदार थे और उनके माता पिता बहुत सख्त। तो रोज मोवाइल पर घंटों बात करना और हर शाम माल में घूमना, जैसी कोई बात नहीं हुई। बस छुट्टियों के अवसर पर माता पिता को बताकर थोङी देर को कहीं मिल लेते। और फिर अपने अध्ययन में लग जाते। जो उनके लिये इस समय अधिक जरूरी था। समय के साथ साथ वे भूल ही गये कि उनके मिलने के पीछे कोई खास उद्देश्य था।
   जाङों की शुरुआत थी। शरद पूर्णिमा के अवसर पर वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन के लिये श्रद्धालुओं की बहुत भीङ रहती है। शरद पूर्णिमा के ही दिन भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ महारास किया था। कालेज में अवकाश था। बच्चों का मन वृन्दावन घूमने का था। रंजना और पल्लवी के माता पिता को वैसे तो रोहन और महेश पर काफी विश्वास था। पर वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या उन्हें इतना भरोसा करना चाहिये कि लङकियों को साथ भेज दें। 
   रंजना और पल्लवी को रोहन और महेश पर पूरा भरोसा था। अभी कुछ महीनों पूर्व एक दूसरे से अपरिचित चारों का एक दूसरे पर इतना विश्वास किसी आश्चर्य से कम नहीं है। कुछ महीनों पूर्व तक रंजना और पल्लवी को कभी भी किसी लङके के साथ कहीं भी घूमते नहीं देखा था। पर आज दोनों लङकियां मथुरा वृन्दावन घूमने जाने के लिये मचल रही थीं। आखिर बहुत हिदायतों के साथ उन्हें भी साथ जाने की अनुमति मिल गयी। हिदायतें तो महेश और रोहन को भी बहुत मिलीं। मौज मस्ती से ज्यादा जिम्मेदारी को अपने ऊपर लादकर चारों बच्चे चल दिये। लङकियों के माॅ बाप की चिंता अपनी जगह सही है पर रोहन और महेश भी पढे लिखे और संस्कारी लङके थे। उनके साथ लङकियां उतनी ही सुरक्षित थीं जितनी कि अपने माॅ बाप के साथ। 
   रास्ता तो हसता गाता गुजर गया। वैसे चारों दोपहर तक मथुरा पहुंच गये पर उन्हें वृन्दावन पहुंचने की जल्दी नहीं थी। शाम तक चारों श्री कृष्ण जन्मभूमि पर घूमते रहे। फिर द्वारिकाधीश जी के दर्शन भी किये। फिर वृन्दावन के लिये निकल लिये। रात में किसी गेस्ट हाउस में रुकने और फिर अगले दिन शरद पूर्णिमा के अवसर पर वृन्दावन के विभिन्न मंदिरों में दर्शन करने का विचार ठीक तो था। पर चारों को यथार्थ का ज्ञान नहीं था। ये तो बच्चे थे पर असल गलती तो माॅ बाप की है जिन्होंने बच्चों को इस समय वृन्दावन भेज दिया। 
   वैसे तो वृन्दावन में रुकने के लिये स्थानों की कमी नहीं है। अनेकों आधुनिक होटलों, मध्यमवर्गीय गेस्ट हाउस के अलावा विभिन्न आश्रमों में भी श्रद्धालुओं के रुकने की व्यवस्था है। पर कुछ अवसरों पर इतने इंतजाम भी छोटे पङ जाते। अधिकांश लोग तो पहले से ही अपने जानकारी के आश्रमों में खुद के लिये कमरा रिजर्व करा लेते। बच्चे जहाॅ भी गये, वहीं उन्हें हाथ जोड़कर नमस्ते कर दी जाती। भगवान श्री कृष्ण की लीला भूमि में चारों बच्चे रात के लिये आश्रय मांगते फिर रहे थे। लङके तो कहीं भी रुककर रात काट सकते थे पर साथ में दो लङकियां भी हैं। पर किसी को भी उनपर दया नहीं आयी। श्रद्धा जब व्यवसाय का रूप रख लेती है तो दया के लिये उसमें कोई जगह नहीं रहती। 
   वैसे ज्ञान और भक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। ज्ञान और वैराग्य को भक्ति का पुत्र कहा है। श्रीमदभागवत की कथा के अनुसार कलियुग के प्रभाव से भक्ति, ज्ञान और वैराग्य तीनों वृद्ध हो गये। पर पवित्र वृन्दावन भूमि के स्पर्श से भक्ति तो युवती बन गयीं। पर वृन्दावन वास भी ज्ञान और वैराग्य को पुनः युवा नहीं बना पाया। 
   कहानी एक दृष्टांत के रूप में है। कलियुग में भी वृन्दावन धाम में भक्ति की धारा बह रही है पर यदि ज्ञान और वैराग्य जैसे गुणों को अब वहाँ तलाशेंगें तो हताशा ही होगी। चारों बच्चे इस आस में भटक रहे थे कि कहीं तो कोई ऐसा दयालु मिलेगा जो उनकी व्यथा समझेगा। पर ऐसा होता दिख नहीं रहा था। आखिर में एक गैस्ट हाउस में एक कमरा खाली मिला। पर कमरे तो दो चाहिये। 
   ” ऐसा करो। आप दोनों यहाँ रुक जाओ। हम यों ही घूमकर रात गुजार देंगें।” 
   पर रंजना और पल्लवी को रोहन का प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा। अब तो सर्दी भी शुरू हो रही है। फिर रात भर उनका खुले में रुकने का अर्थ बीमार होना ही है। अचानक गैस्ट हाउस के मैनेजर जो वास्तव में साठ बासठ साल का आदमी था, के मन में करुणा जग गयी। गैस्ट हाउस में एक कमरा गैस्ट हाउस के मालिक के लिये रिजर्व था। मालिक कभी कभी ही आते थे पर अत्याधुनिक सुविधा संपन्न कमरा हमेशा खाली रखा जाता। उस कमरे में दोनों लङकियां रुक गयीं और दूसरे कमरे में दोनों लङके। चारों ने मैनेजर को बहुत धन्यावाद दिया पर मैनेजर की नजर बार बार रंजना और रोहन की तरफ जा रही थी। संभव है कि मैनेजर के मन में अचानक जो दयालुता उपजी, उसका कारण रंजना और रोहन ही हों। भला आज तक मालिक के रिजर्व रूम में किसी को नहीं रुकने दिया तो आज अचानक वह रूम कैसे खोल दिया जबकि थोङी ही देर पहले मालिक ने खुद के आने की सूचना मैनेजर को दी थी। संभवतः बच्चों के वृन्दावन भ्रमण के दौरान अनेकों अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिल जायें। कई प्रश्न जो इन चारों के अलावा और भी अनेकों के मन में हैं, अब सही तरह से हल हों तथा कई पूर्व धारणाएं ध्वस्त होकर सच्चाई संसार के सामने आये। 
क्रमशः अगले भाग में….
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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