रामचंद्र जी की गाङी से आज उनके साथ एक महिला भी उतरी तो गांव के लोग उसे देखने लगे। अधिकांश लोग ममता को पहचान नहीं पा रहे थे और ममता भी अधिकांश को पहचान नहीं पा रही थी। समय के साथ अधिकांश की आयु बढ गयी थी। उस समय के बच्चों को पहचान पाना तो असंभव ही था।
इतने बीच गांव ने भी काफी तरक्की की। गांव तक की कच्ची सङक अब पक्की थी। गांव में जूनियर हाईस्कूल खुल चुका था। वैसे अनेकों बच्चे शहर भी पढने जाते थे जिनमें लङकियां भी थीं। लङकी को पढाने के विषय में रामचंद्र जी शायद गांव के सबसे पहले व्यक्ति थे। पर अब तो गांव की हर लङकी शहर पढने जाती थी। गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र भी था। गांव में अब सयाने पर कोई इलाज नहीं कराता।
” मालिक के साथ यह औरत कौन है।”
” समझ नहीं आ रहा। कौन है।”
रमुआ के पूछने पर संतोष ने कहा। वैसे दोनों कुछ समझ रहे थे और कुछ समझ नहीं रहे थे। समझने की बात तो यह थी कि औरत ममता है। भले ही बहुत दिनों बाद देखी है पर पहचान में आ रही है। न समझने की बात यह थी कि ममता को भला रामचंद्र जी इतने सम्मान से अपनी गाङी में लेकर क्यों आयेंगें।
” सुना है कि एक ही शक्ल के संसार में तीन लोग होते हैं।”
” तीन नहीं, सात लोग होते हैं।”
घनानंद की बात सुखिया ने काट दी।
कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा, पर प्रश्न सभी के मन में थे।
” मालिक। एक बात पूछूं।”
” अरे हाॅ ।यह मेरी बहन हैं। अब मेरे साथ ही रहेंगीं। इनका कमरा तैयार करो। “
संतोष रामचंद्र जी के घर में नौकर का काम करता था। जाति से नाई और बहुत चालाक। पर आज उसकी चालाकी नहीं चल पायी। संदेह वैसा ही बरकरार रहा।
………
कुछ दिनों के बाद गांव में रामचंद्र जी ने श्रीमदभागवत की कथा का आयोजन कराया। वृन्दावन से माने हुए भागवताचार्य आये। पूरे सात दिन भव्य कथा हुई। दूर दूर तक गांवों से लोग कथा सुनने आये थे। वैसे मान्यता है कि भागवत की कथा सुनने से मनुष्य के पाप धुल जाते हैं। भागवत की कथा सुनने से धुंधुकारी जैसे पापी का भी उद्धार हो गया। पर सत्य यह है कि उद्धार केवल कथा सुनने से नहीं होता है। उद्धार तो प्रायश्चित से होता है। कथा तो प्रायश्चित का एक तरीका है। और प्रायश्चित की शुरुआत होती है, खुद को जन समुदाय के समक्ष दोषी बताकर। खुद की गलती को जताकर। संसार को बताकर कि मुझसे अधर्म हुआ है।
कथा के सातवें दिन बहुत जन सैलाव था। वैसे भी कइयों की मान्यता है कि पहले दिन और आखरी दिन कथा में सम्मिलित होने से पूरे सात दिन का पुण्य मिल जाता है। अधिकांश को इन बातों से मतलब नहीं होता। आखरी दिन भंडारे में सम्मिलित होने के लिये अधिक भीङ वैसे भी हो जाती है।
रामचंद्र जी हाथ जोड़कर खङे हो गये। फिर बोलने लगे।
” सभी गांव बालों। मेरे सारे संबंधियों। मेरे जीवन में मुझसे किसी भी तरह जुङे आदरणीय सज्जनों। मेरे बच्चों और पोते पोतियों। आज मैं सभी के सामने स्वीकार करता हूं कि मैं पापी हूं। मेने अहंकार के मद में कितने अधर्म किये। यद्यपि दुख मनुष्य को संसार से विरक्ति देने का साधन है। खुद भगवान ने कहा है कि मैं जिनपर कृपा करता हूं, उन्हें वेशुमार दुख देता हूं। सुखों में मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है और दुखों में उसे याद रखता है।
मेरे ऊपर ईश्वर की आरंभ से ही कृपा रही। पर उनकी कृपा भी मेरे मन को शुद्ध न कर पायी। युवावस्था में जब मैं अपने हिस्से की संपत्ति का स्वामी हुआ तो सारा ज्ञान भूल गया। शायद सही कहा है कि सोने में कलियुग का निवास है। सोना तो एक रूपक है जो संपत्ति का प्रतीक है।
फिर ईश्वर ने एक बार मुझपर कृपा की। मेरी पत्नी मुझे अकेला छोङकर नित्य धाम चली गयी। मुझे लगता है वह आज भी मुझे देखकर धिक्कार रही है। कह रही है कि आप और इतने निर्दयी।
मुझे खुद का जीवन संवारने की कोई इच्छा नहीं है। न यह कथा मेने खुद को पापमुक्त करने के लिये की है। मैं तो बस यही चाहता हूं कि जब मैं दुनिया छोङकर अपनी लक्ष्मी के पास जाऊं तो वह मुझसे मुंह न मोङे। लक्ष्मी भी स्वीकार कर ले कि मैं इतना साहस रखता हूं कि खुद के पाप सभी को बता सकता हूं।
हाॅ मैं दोषी हूं। मैं ऊंच और नीच की भावना से खुद को कभी मुक्त नहीं कर पाया। जबकि स्वयं श्री राम ने भीलनी के हाथों से बेर खाये थे।
हाॅ मैं दोषी हूं। मैं अपनी बेटी की खुशियों का खुद दुश्मन बन बैठा। असली खुशियां तो प्रेम से आती हैं। और मैं अपनी बेटी के प्रेम का दुश्मन बन बैठा।
हाॅ मैं दोषी हूं। मेरे संदेह के कारण बहन ममता ने अपार कष्ट उठाये। उस दिन मेरी तो बेटी ही गायब हुई थी पर ममता बहन का तो बेटा और बेटी दोनों गायब हुए। और मेने बहन का सहयोग करना तो दूर, खुद उसी को कष्टों के जाल में फैंक दिया।
ईश्वर मुझे क्षमा करें या न करें। पर मैं यही चाहता हूं कि मेरे बच्चों का हत्यारा पकङा जाये। वह अपनी करनी का फल भुगते। यदि जीवन में मेने कोई भी सुकर्म किया है तो मैं यही चाहूंगा कि मेरे उस सुकर्म के प्रभाव से वास्तविक अपराधी सजा पाये। फिर चाहे मैं युगों तक नरक की आग में जलता रहूं।
वह अपराधी कितना भी चालाक हो, मैं उसे ढूंढ निकालूँगा। शायद ईश्वर भी यही चाहते हैं। तभी तो रामू और वीना मुझे फिर से मिल गये। नये शरीर में, नये जन्म में। वह दिन आयेगा कि वीना और रामू खुद के कातिल को खुद पहचानेंगे। “
सारा जन समूह आश्चर्य से देखता रहा। रामचंद्र और ममता की आंखों से आंसू निकलने लगे। रामचंद्र जी को ध्यान भी नहीं था कि भावनाओं के प्रवाह में वह बङी भूल कर चुके हैं। जिन्होंने रामू और वीना को मारा था, वे अपराधी भी इसी जन समूह में उपस्थित थे। अनजाने में ही रोहन और रंजना का जीवन संकट ग्रस्त हो गया। भले ही पुनर्जन्म की अवधारणा पर वे विश्वास नहीं करते थे पर समाज में सफेदपोश बनकर रहते आये ये अपराधी हमेशा अपनी सफेदी बरकरार रखने के लिये कुछ भी कर सकते थे।
क्रमशः अगले भाग में..
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’