क्यों हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा ?
हाँ सोचती हूँ मैं अक्सर ही कि-
क्यों हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा।
कितने सिमटकर रह गये हैं रिश्ते कि
अब!पहले वाली बात रही नहीं उनमें।
सोचती हूँ मैं अक्सर ही कि पहले जैसा
कुछ बचा नहीं इस दौर में ।
कितने उलझ कर रह गये हम सभी
कि पहले वाली बात अब बची नहीं।
वो खुशियों का दौर वो मनमौजी फितरत
अब रिश्तों में बची ही नहीं।
वो अपेक्षाओ की बलि वेदी में दफन हो गया
कि हाँ हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा।
संकोच और संतुष्टि के भाव न जाने कहाँ आलोप हो गये
कि रिश्ते अब औपचारिकता की भेंट चढ़ गए।
वो मेल मिलाप भी न जाने कहाँ अंतर्धान हो गया
कि हर रिश्ता अब पहले जैसा नहीं रहा।
वो डांट वो डपट और अपनापन भी अब
झंझटों के डर का शिकार हो गया।
आज सोचती हूँ मैं अक्सर ही कि हर रिश्ता
पहले जैसा नहीं रहा।
आधुनिकता की आहुति में स्वाहा हो गया
कि हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा।
एक दूसरे की भावनाओं को समझते थे
कि आज अपनी भावनाओं के लिए वक्त नहीं रहा।
हाँ आज हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा
जो बात पहले थी कभी वो बदल गयी।
कि अब हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा
आज हर रिश्तों में परतें चढ़ गयी।
न जाने वो रौनक वो ठहाके भी गुम हो गये
कि आज अक्सर देखती हूँ बनावट हावी हो गयी।
कि आज हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा है।
वो अदब वो शिष्टाचार बेलगाम हो गया
कि आज आचरण भी बेनकाब हो गया है।
कितने विविधतापूर्ण जीवन जी रहे हैं
कि आज धैर्य और संयम ही साथ छोड़ रहा है।
हर रिश्ता आज खोखलेपन का शिकार हो रहा है
कि आज हर रिश्ता अधूरा ,असहाय हो गया है।
सोचती हूँ मैं अक्सर ही कि पहले जैसा
अब कुछ भी नहीं रहा है।
रिश्तों के अपनेपन ने अब दिखावा ओढ़ लिया है।
अब रिश्तों में पहले वाली बात बची नहीं है
हाँ आज हर रिश्ता पहले जैसा नहीं रहा है।।
—अनिता शर्मा झाँसी
—–मौलिक रचना
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