जब नहीं थे हम तुम
प्रकृति तब भी थी
परिवर्तन से इसके ही
हुआ हमारा सृजन
जीवन दिया इसी
की सौगातों ने
मानव ने आधुनिकता
एवं विकास की अंधीदौड़ में
शामिल हो कर इसे भुला दिया
और नियंत्रण इस पर अपना
लगा दिया,
फिर भी ये वसुंधरा
चुपचाप देखती ही रहीं
मानव की हर भूल को
नज़रअंदाज इसने किया
आधुनिकता की होड़ में
जब स्वरुप को हर ओर
से छलनी किया
इसने भी फिर रूप बदल
मनुष्य पर प्रहार किया
आँधी, तूफानों के कंपन से
भी मानव ह्रदय नहीं हिला
संकेत देती आपदाओं का
संदेश भी नहीं सुना
महामारी के कड़े प्रहार ने
अब एक मौका और दिया
किस तरह इसने हमें घरों
में ही कैद किया
अब मान ले बस ये बात
सिद्ध है सृजन इसका
ऊपर इससे तू नहीं
साथ लेकर चल इसे
नहीं तो तेरा अस्तित्व नहीं
चेतावनी ये जाने ले और
पर्यावरण संरक्षण को
अपनी जिम्मेदारी मान ले
हरी भरी बनाने ये धरा
वृक्षारोपण की मुहिम चला
धरा को निखार दे और
अस्तित्व अपना भी संवार ले।
स्वरचित
शैली भागवत “आस”
इंदौर