विप्र था ऐसा जिनकी पहुँच थी ब्रह्म तक,
ब्राह्मण होकर तप- धाम हुआ करता था,
विप्र था तो अग्नि जैसी आंच भी थी उसमें,
सौम्य मुख ज्ञान से ललाम हुआ करता था,
राजे-महाराजे प्रतिदिन मस्तक झुकाते थे,
खौफ पापियों में सुबह शाम हुआ करता था,
जटाजूट से शुशोभित कंधे पे शर चाप धरे,
कर में परशु लिए परशुराम हुआ करता था।।
कवि कौशल गोंडवी।।