कविता

परदेसी

परदेशी ,तो, परदेशी होते।
अपने नहीं, विदेशी होते।
प्रीति न परदेशी से, लगाना।
वरना, तुम्हें पड़े, पछताना।
हमने भी, था,नेह लगाया।
रैन दिवस,तन मन को जलाया।
परदेशी का प्रेम है,सपना।
सपना, कभी,न, होता अपना।
ये मतलब से ,बनते मीत।
झूठी इनकी, होती,प्रीत।
परदेशी तो, इक ,दिन जाते।
जीवन भर का, ग़म दे, जाते।
केवल,रह जाती है, यादें।
हर पल ओठों ,पर, फरियादें ।
परदेशी न, लौट के, आते।
जाने, कहां, किस दिशा में जाते।
मिलता न, कोई, पता, ठिकाना।
कौन डगर,किस नगर है,जाना।
भूपर हम सब है,परदेशी।
सबकी,हालत है,इक जैसी।
हम सबको, भी वहीं है,जाना।
सबका है,कहीं, और ठिकाना।
केबल राम के घर है,जाना।
परदेशी, क्यों है, अंजाना।

बलराम यादव देवरा
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One thought on “परदेसी”
  1. बहुत सुंदर आदरणीय जी।

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