बचपन की वो बेफिक्री वाली नींद
बहुत याद आती है,
जो चुपके से आंखों के कोयों में
आकर बस जाती है।
न ही सर पर जिम्मेदारी का बोझ था
न ही चिंता थी काम पर जाने की,
पढाई का नाम सुनते ही आदत
पड़ गयी थी अलसाने की।
नींद में सोए हुए हम अकसर
सपनों की दुनिया में रहते थे,
कभी करते थे सैर समंदर की 
तो कभी हवा में उड़ते थे।
बचपन की इस खूबसूरत दहलीज को
न जाने हम कब पर कर गए,
दब गए जिम्मेदारियों के बोझ तले
और सुकून की नींद से कोसों दूर हो गए।
न ही मिलती अब वो बेफिक्री वाली नींद
और न ही सपनों में खोते है,
नींद की गोली का सहारा लेकर
हम फिर वही दिनचर्या शुरू करते है।
शीला द्विवेदी “अक्षरा”
उत्तर प्रदेश “उरई”
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