निःस्वार्थ सेवा करने का तात्पर्य है प्रभु की मेवा इकट्ठी करना वही तो आजीवन पोषण देती है।कभी किसी दूसरे के सामने हाँथ फैलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। न किसी कल की ही फिक्र करनी होती है।यही तो है सच्ची आराधना और पूजा!
भलाई यानि परहित अथवा दूसरों की सहायता करना अच्छा होता है। भलाई मनुष्य को देवताओं का दर्जा प्रदान करती है और इसके प्रभाव से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। निस्वार्थ सेवा का भाव भी भलाई का एक रूप है भलाई के समान कोई दूसरा धर्म नहीं होता। श्री रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने भी लिखा है -: परहित सरिस धर्म नहि भाई।
पर पीड़ा सम नहि अधमाई।।
अर्थात दूसरे का कल्याण करने के समान कोई अन्य धर्म (पुण्य) नहीं है मतलब कि सुन्दर फलदायी कार्य नहीं है,तथा दूसरों को दुःख (पीड़ा/व्यथा) देने के समान पाप (बुरा कार्य) नहीं है।
कभी किसी बेबस की ख़ातिर, अपनी नींद उड़ा करके तो देखिए, कभी कड़कती धूप में तप कर, निर्बल को बल दे कर तो देखिए, निराशा भरी निगाहों में, उम्मीद जगा करके तो देखिए और उन उम्मीदों की खातिर अपना, हर दर्द भुला कर तो देखिए किस परमानन्द की के सागर की लहरें हिल्लोरती हैं आप कभी अंदाज भी नहीं लगा सकते।
नि:स्वार्थ भाव से सेवा की जाती है वही श्रेष्ठ सेवा कहलाती है। जो सेवा भावना आप महापुरुषों में है काश, यही भावना समाज में भी आ जाए तो दुनिया सुंदर से सुन्दरतम बन जाएगी।
नि: स्वार्थ भाव से यथासंभव जरूरतमंद की मदद करना, सेवा करना हमारे संस्कारों की पहचान कराता है। तन, मन और वचन से दूसरे की सेवा में तत्पर रहना स्वयं इतना बड़ा साधन है कि उसके रहते किसी अन्य साधन की आवश्यकता ही नहीं रहती, क्योंकि जो व्यक्ति सेवा में सच्चे मन से लग जाएगा उसको वह सब कुछ स्वत: ही प्राप्त होगा जिसकी वह आकांक्षा रखता है।
धन्यवाद!
लेखिका- सुषमा श्रीवास्तव, मौलिक विचार, सर्वाधिकार सुरक्षित, रुद्रपुर, उत्तराखंड।