पी रहा लहू चुल्लू भर भर ।
यह धरा विवश हो बिलख रही
यह अत्याचार देख देख कर।।
उस समय एक दुःशासन था
अब हर मानव दुः शासन है।
द्रौपदी के वस्त्र हरण की तरह
पृथ्वी का छिनता आंचल है।।
हरित वसन को छीन के तुम
क्यों वस्त्र विहीन करते हो ?
काट काट कर वृक्ष ये उसके
क्यों चिथड़े चिथड़े कर देते हो?
जैसे एक ममतारूपी मां
निज शिशु को दूध पिलाती है।
वैसे ही अपने अंतर से वो
हम सबकी प्यास बुझाती है।।
यह ह्रदय विदीर्ण किया उसने
हम सबको जीवन दान दिया ।
फिर क्यों क्षुदित दैत्य की भांति
उसको तुमने वीरान किया ?
हरी हरी साड़ी पहनाओ फिर से
और फूलों से उसका श्रृंगार करो।
मत उसको वस्त्र विहीन करो
कृष्णा बन उसका उद्धार करो।।
संगीता शर्मा “प्रिया”