श्यामा के जीवन का एक ही सपना था- स्वर्ग सा जीवन! जिसकी परिभाषा थी कि वह खूब अमीर हो, अनंत पैसा हो जो किसी भी चीज़ को खरीदने में सक्षम हो; सारी दुनिया को अपने सामने झुकाने की श्रमता रखता हो। ऐसा जीवन, जैसा उसकी बहन नमिता का था।
वह हर पल सोचती थी, कितना फर्क है दोनों बहनों की किस्मत में! कहाँ नमिता- जिसे इतना साधन-समपन्न ससुराल मिला है कि दोनों हाथों से भी पैसा लुटाए तो खत्म न हो।
बच्चे देश के सबसे अच्छे स्कूल में पढते और होस्टल में रहते हैं, जल्द ही आगे की पढाई के लिए विदेश चले जाएंगे; संभवतः वहीं रह जाएं।
दोस्तों क साथ छुट्टियाँ मनाने की बात हो तो नमिता भी तो विदेश ही जाती है; भारत से बाहर जाना तो उनके लिए साधारण सी बात है।
जीजा जी भी कितने अच्छे हैं, कितने खुले दिल से नमिता की हर ज़रूरत पूरी करते हैं, कभी पूछते ही नहीं कि वह कहाँ, कितना और क्यों खर्च कर रही है। तभी तो- वह जब मिलती है, हर बार एक से एक बढ़कर कपडे, और हर बार नया गहना दिखाती है। जब आती है, मेरे बच्चों के लिए महंगे से महंगे खिलौने, मोबाइल, मेरे लिए उपहार ले कर आती है।
मगर विवेक एक नौकरीपेशा व्यक्ति हैं; उनकी सीमित आय में, वह यह सब सोच भी नहीं सकती, हर पाई का हिसाब रखना पडता है।
बच्चों के भविष्य के लिए अभी से सोच समझ कर बचत करनी पड़ती है, कभी कभी तो अपनी छोटी-छोटी इच्छाएँ भी दबा लेनी पड़ती हैं। आखिर दो बच्चों की परवरिश, उनकी पढाई, आज के महंगाई के ज़माने में एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए इतनी सहज थोडे ही है! हुह!
आज, खाने बनाने का मन न हुआ तो विवेक ने खुले मन से कह तो दिया कि बाहर ले जाएंगे, मगर हाय री किस्मत! बारह वर्ष पुरानी छोटी सी गाडी ने आज ही चलने से इंकार कर दिया। अंतः विवेक पास के ढाबे से खाना पैक करवा कर ले आए।
मन मार कर खाते हुए श्यामा सोच रही थी- “तीन गाडियाँ हैं नमिता के पास। हर दो तीन साल में कार बदल लेते हैं! वह तो विवेक से भी कई बार कह चुकी है कि नई गाडी ले लो, मगर विवेक हर बार यही कह देते हैं- “जब तक चल रही है, चलने दो!”
हर निवाले के साथ श्यामा अपने और नमिता के जीवन की तुलना करती रही- “आखिरी बार एक पांच सितारा होटल में खाना तब खाया था जब नमिता जबरदस्ती उसे अपने साथ ले गई थी; वरना तो उसे इस ढाबे या ज़्यादा से ज़्यादा गली के नुक्कड पर बने एक छोटे से रेस्टोरेंट के देसी तड़के वाले चायनीज़ खाने से ही संतुष्ट हो जाना पड़ता है”।
श्यामा कितनी बार कह चुकी है विवेक से- “जीजाजी से बात कर के शेयर मार्केट में पैसा लगा लो, दिनों में अमीर हो जाएंगे!”
मगर विवेक का हर बार यही जवाब होता है- “शेयर बाजार जुआ है श्यामा, जितनी जल्दी देता है, उससे भी जल्दी सब लुट भी सकता है।”
यही सब सोचते हुए अपन और नमिता के जीवन की तुलनाओं का सिलसिला बढता गया और श्यामा नमिता के जीवन को स्वर्ग समान मान मन ही मन टूटती गई। अपने टूटे से सपनों को अपने मन में ही समेटा और कुछ निर्णय करते हुए अंतिम निवाला मुहँ में डाला।
अगली सुबह विवेक से बोली- “सुनिए, आज मुझे नमिता के घर जाना है, वह कब से बुला रही थी, सोचती हूँ आज हो आऊँ। दोपहर तक लौट आऊंगी!”
विवेक ने भी बेदिली से हामी भरी। वह जानता था कि नमिता का वैभव देख अगले कुछ दिन तक श्यामा फिर वही सब सोचती और उस पर दबाव या उलाहने देती रहेगी। शिकायतों का दौर फिर शुरू हो जाएगा। मगर श्यामा को रोक भी नहीं सकता था- आखिर माता-पिता के जाने के बाद नमिता ही उसका मायका भी तो थी।
कुछ देर में श्यामा ने अपनी थोडी बहुत जमा पूंजी एकत्र की और नमिता के घर चल दी। नमिता के बडे से घर को हसरत भरी निगाह से देख भीतर गई और घंटी बजाने ही वाली थी कि भीतर से आती आवाज़ें सुन कर चौंक गई-
नमिता अपने पति से कह रही थी- “शर्म नहीं आती आपको! अपनी से आधी उम्र की लडकी से साथ संबंध बनाते हुए! आखिर क्या कमी है मुझमें और मेरे प्यार में, जो आपको किसी और की ज़रूरत पड गई। दुनिया देखेगी तो क्या कहेगी? क्या इज़्ज़त रह जाएगी हमारी?
जीजा जी का निर्लज्जता भरा जवाब आया था- “रोज़ रोज एक ही खाना तो नहीं खा सकते न नमिता! और तुम भूल रही हो- जिस दुनिया की तुम बात कर रही हो न- वहाँ लोग इस शानो-शौकत और पैसे की इज्जत करते हैं- और वह तो मैं तुम्हे बेहिसाब देता ही हूँ न।
क्या कमी रखी है मैंने तुम्हारे जीवन में? हर चीज़ बेहतरीन है तुम्हारे पास, इतने शानदार घर की मालकिन हो तुम! महंगे कपडे, गहने, अपने लिए अलग गाडी, घूमना-फिरना, इतना ऐश्वर्यपूर्ण जीवन है तुम्हारा। समाज में तुम्हारा एक रुतबा है, नाम है जो मेरे पैसों से ही तो मिला है न तुम्हें। और नाम से याद आया- “यह नाम- नमिता, जो बडी शान से सारी दुनिया को बताती हो, वह भी तो विवाह के बाद में ही दिया हुआ है! वरना तुम्हारे मा-बाप ने तो नीमा नाम दिया था न!!
कितना लो-क्लास लगता है, श्यामा/ नीमा! हुह! किसी के सामने बोलते भी गरीबी का एहसास होता था!”
नमिता ने सुबकते हुए कहा- “मेरे माता-पिता के बीच में क्यों ला रहे हो? और मै मानती हूँ कि आपने मुझे इतना सब दिया है, मगर फिर भी एक कमी तो है न- आपके प्यार और साथ की कमी।
क्या आपको याद है कि आखिरी बार कब हम साथ घूमने गए थे? क्या आपको याद है कि कब हमने अपने बच्चों के साथ समय बिताया था? अरे, साथ बैठ कर खाना भी कब खाया हो, यह भी मुझे तो याद नहीं! बच्चों को भी पैसे के सिवा दिया ही क्या है आपने? घूमने के लिए विदेश जाते हैं मगर आप अलग और मैं- अलग, बिल्कुल अकेली। हम दौलत तो समेटते रह गए, मगर खुद टुकडों में बंटते चले गए।
आप जानते हैं- हमारे बच्चे क्या सोचते हैं? वे भी सोचते हैं कि पैसा जितना भी हो, मगर जब वो बडे होंगे तो परिवार बनाने की प्रेरणा अपनी मासी से लेंगे।
आज मेरी श्यामा के पास पैसा कम है- मगर उनका परिवार एक साथ है! वहाँ खोखली दिखावटी मुस्कानें नहीं, खुशियाँ खिलखिलाती हैं, भाई-बहन लडते झगड़ते भी हैं तो प्यार भी बांटते हैं। वहाँ नौकरों के हाथ का होटल जैसा खाना नहीं, माँ की ममता में गूंथी रोटियाँ पोषण देती हैं! एक बार अपने बेटे से पूछा था मैंने कि वह छुट्टियाँ बिताने घर कब आएगा? जानते हो उसने क्या कहा- उसने कहा– मॉम, पापा तो मिलते नहीं, आप भी सोसाइटी मीटिंग्स में व्यस्त रहती हो। तो जब मासी के बच्चों को छुट्टियाँ होंगी, तो कुछ दिन के लिए वहीं जाऊंगा। आप भी मुझसे वहीं मिल लेना!”
सच है! पैसे से हरहने को इतना बडा घर तो बन गया है हमारा मगर कमी रह गई कि हम परिवार नहीं बन सका।
आज अकेली बैठ कर सोचती हूँ कि क्या फर्क है हम दोनों में तो समझ आता है कि श्यामा का घर घर नहीं प्यार का स्वर्ग है।
बाहर खडी श्यामा देर तक सुनती रही और बाहर से ही लौट गई। रास्ते भर सोचती रही- विवेक कितने समर्पित पति हैं और कितने अच्छे पिता। आज सादी रोटी खाते हैं, मगर साथ बैठ कर प्यार से खाते हैं। सुख में दुख में एक दूसरे के साथी रहते हैं। मुझे याद है, जब मुझे टायफायड हुआ था, विवेक ने कितने धीरज और प्रेम से सेवा की थी। कितनी खुशनसीब हूँ मैं! कितना प्यार करन वाला, साथ देने वाला पति मिला है और मैं आज तक उसकी कदर न कर सकी, दुनिया की चकाचौंध में अंधी हो, बस उलाहने ही देती रही।
सच में- दिखावा कितना भी मनभावन हो, सादगी और सच्चे प्यार का मुकाबला नहीं कर सकता।
यही सोचते हुए घर पहुंच कर श्यामा ने विवेक की पसंद कार्ने बनाया विवेक घर लौटते समय आशंकित था कि आज ज़रूर घर में तमाशा होगा, मगर हैरान हो गया जब श्यामा उससे लिपट गई और बोली- सॉरी विवेक, मैं आज तक सपनों के पीछे भागती रही, और आपकी कदर नहीं की मगर आपने कभी बुरा न माना, हमेशा मेरा साथ दिया। आज समझ आ गये है, दिखावा नहीं, प्यार ही जीवन को स्वर्ग बना सकता है। धन्यवाद विवेक, इस धरती पर मुझे मेरे हिस्से का स्वर्ग देने के लिए!”
कह कर फिर से लिपट गई तो विवेक ने भी उसे बाहों में ले लिया- “तुम्हें भी धन्यवाद- इस स्वर्ग को अपने प्यार से सजाने के लिए!”
शालिनी अग्रवाल
जलंधर