जिसका लगभग सर्वस्व नष्ट हो चुका हो, वह भी अपना सर्वस्व प्राप्त कर लेता है। जिसकी हार लगभग तय हो, वह भी अप्रत्याशित रूप से जीत जाता है। जब कोई सच्चा प्रेमी मन ही मन सलामती की आराधना करता है, उस समय ईश्वर को भी कर्मविधान बदलना पड़ जाता है। अपार दुख का आरंभ होने से पूर्व ही उसे वे सारे सुख मिल जाते हैं, जिन्हें वह हमेशा चाहता रहा हो।
एक सच्चा प्रेमी किसी भी तरह साधना की सर्वोच्च अवस्था पर पहुंचे सन्यासी से कम नहीं होता है। फिर वह भी अपनी इच्छा से बदलाव कर सकता है। भले ही वह खुद अपने दुख को समाप्त न कर पाया हो पर अपने प्रेम को दुख की स्थिति में जाने से रोक सकता है। दूर से ही अपने प्रेम का जीवन संवार सकता है।
शिवानी का जीवन लगभग बर्बाद ही हो चुका था। भले ही विवाह विच्छेद के रूप में उसे अच्छी धनराशि मिल जाती पर क्या जीवन के लिये धन ही पर्याप्त है। भले ही मन में प्रेम न हो, फिर भी साथ साथ रहने बालों को एक दूसरे के साथ की आदत तो हो ही जाती है। धीरे-धीरे वही साथ एक अटूट बंधन का आधार बनता है।
जब दयानाथ शिवानी को वापस लेने आया तो एक बार शिवानी का मन इन्कार का हुआ। इस तरह तो उसके सपने कब पूरे होंगें। क्या इसके लिये उसने वर्षों पहले प्रवेश से प्रेम का खेल खेला तथा फिर दयानाथ को अपने प्रेम जाल में फसाया। पर शायद ईश्वर उसके अनुकूल थे। दयानाथ द्वारा भी उसके लिये एशोआराम की जिंदगी छोड़ना उसके मन को भा गया। भले ही शिवानी के मन में दयानाथ के लिये पूर्ण प्रेम का उदय न हुआ फिर भी वह इन्कार न कर पायी। जीवन पथ पर दयानाथ के साथ संघर्षों में जीवन गुजारने चल दी।
निश्चित ही यह प्रेम ही है कि एक अति संपन्न परिवार का युवक जिसने बचपन से सुख ही सुख देखे थे, जिसके द्वारा साधारण तरीके से जीवन जीने की बात स्वीकार करने को भी मन तैयार नहीं होता है, वह शिवानी के साथ बहुत साधारण जीवन जीने चल दिया। जानता था कि उसे जो वेतन मिलेगा, उसमें वह मध्यम वर्गीय परिवार की भांति भी नहीं रह पायेगा।
शिवानी को नवीन परिस्थितियों में बहुत दिक्कत आयी। अब उसका रहन सहन मध्यमवर्गीय भी नहीं था। उसका पहनावा बहुत साधारण हो चुका था। पुरे घर का काम भी वही करती थी। बचपन से ही कपड़े धोने के लिये वाशिंग मशीन का प्रयोग करती आयी शिवानी के इस जीवन में ऐसी कोई सुविधा नहीं थी। घर में फ्रिज, टीवी, जैसे साधन उसके स्वप्न बन चुके थे। फिर भी शिवानी इस राह पर बढती जा रही थी।
न तो शिवानी के मन से एशोआराम के लिये वैराग्य हुआ था और न ही वह नवीन जीवन में सहज महसूस कर रही थी। फिर भी मन में एक जिद थी जो उसे हारने नहीं दे रही थी। जब एक अति संपन्न परिवार का युवक इतनी कठिनाइयों में जीवन जी सकता है तो वह क्यों नहीं। वह कैसे अपनी कमजोरी जाहिर कर सकती है।
वह कैसे सिद्ध होने दे सकती है कि एक पति ने अपनी पत्नी के प्रेम में सारे एशोआरामों पर लात मार दी। पर पत्नी उस स्थिति में भी उसे अपना नहीं पायी ।
दिन निकले, महीने निकले, एक वर्ष होने आ गया। हालांकि अब दयानाथ का वेतन भी कुछ संतोषजनक था। फिर भी जीवन जीने में कुछ दिक्कत तो थी। अब समय आ चुका था कि शिवानी को दुहरी भूमिका अपनानी होगी। उसे घर संभालने के अतिरिक्त कुछ आय भी करनी होगी। दुखद बात थी कि उसके पास घर के काम में सहयोग करने के लिये उसके पति के अतिरिक्त और कोई नहीं होगा।
निश्चित ही माना जाता है कि घर की पूरी जिम्मेदारी स्त्रियों की है। पर अभी तक दयानाथ भी शिवानी का यथायोग्य सहयोग करता रहा था। अब वही शिवानी को तैयार कर रहा था – उसकी नयी भूमिका के लिये। उसने कंपनी के मालिक से बात कर शिवानी के लिये भी एक छोटी सी नौकरी लगवा दी है। अब जीवन में आगे बढना है, जीवन में सुख सुविधाएं चाहिये तो दोनों को ही काम करना होगा। दोनों को ही घर भी देखना होगा। भविष्य में दोनों को ही मिलकर बच्चों की देखभाल करनी होगी।
शिवानी जानती थी कि घर सम्हालने के बाद नौकरी करना कितना कठिन है। वैसे भी आरंभ से ही वह अधिक परिश्रमी नहीं थी। पर अब उसे यह भी करना होगा। आखिर वह खुद को हारता हुआ कैसे स्वीकार कर सकती थी।
पर अपने पति के साथ उसकी कंपनी में पहुंचते ही शिवानी के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। कंपनी के स्वामी के स्थान पर उसके ससुर जी मौजूद थे। जो शिवानी को देखते ही उठ खड़े हुए। शिवानी को उन्होंने प्रेम से कंपनी के स्वामी की कुर्सी पर बिठा दिया।
” बेटी। हम सचमुच गलत थे। हम सचमुच एक हीरा को त्यागने बाले थे। भला हो उस अनजान युवक का जिसने फोन पर हमें समझा दिया। बतला दिया कि शिवानी विषम से विषम परिस्थितियों में भी मेरे बेटे का साथ नहीं छोड़ेगी। सचमुच तुमने विषम परिस्थितियों में भी मेरे बेटे का साथ दिया है। अब यह कंपनी तुम्हरी और दयानाथ की देखरेख में ही आगे बढेगी। इसी शहर में स्थित हमारे आलीशान घर में तुम दयानाथ के साथ रहोंगी। हमारे परिवार के साथ साथ हमारे व्यापार में भी तुम्हारा स्वागत है। “
शिवानी ने अपने ससुर जी के पैर छू लिये। अभी भी वह यह समझने में नाकामयाब थी कि उसपर इतना भरोसा कौन कर सकता है। जबकि वह खुद भी अनेकों बार विचलित हुई थी। उसे इस दौरान अनेकों बार अपने सपनों के मिट्टी में मिल जाने का अफसोस भी हुआ था।
मनुष्य भले ही किसी व्यक्ति पर विश्वास करे या न करे पर वह खुद के मन में बसे प्रेम से कभी अविश्वास नहीं कर पाता है। भले ही प्रवेश को शिवानी पर कोई विश्वास नहीं है पर वह अपने मन के निर्मल प्रेम पर तो विश्वास कर सकता है। शिवानी का जीवन सचमुच बिगड़ चुका था। वह सचमुच अपनी जंग हारने ही बाली थी। उसका सर्वस्व लगभग मिट ही चुका था। पर हारने से पूर्व वह फिर से जीत गयी। सब मिटने से पूर्व उसे सब मिल गया। आखिर प्रवेश ने अपने मन के प्रेम पर विश्वास किया। शिवानी के विषय में ऐसा दावा कर दिया जो कि शिवानी के व्यक्तित्व से सर्वथा भिन्न था।
सत्य है कि ईश्वर भी सच्चे प्रेमियों की बात नहीं टालते हैं। सच्चे प्रेमियों की बात का भी उसी तरह मान रखते हैं जैसे कि सच्चे सन्यासी और पतिव्रता स्त्री की बात का मान रखते हैं।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’