शिवानी के धोखे से परिचित प्रवेश विचलित होता पर उसे अचित्या ने सम्हाल लिया। अब प्रवेश से कुछ भी छिपाने से कोई फायदा नहीं था। वास्तव में यह सत्य है कि अब शिवानी उसके लिये इतिहास बन चुकी है। भले ही प्रवेश ने शिवानी से बेतहाशा प्रेम किया है, पर अब उसे सब भूलकर आगे बढना होगा। कौन, क्या और कैसे को भूलना आसान नहीं है। फिर जब प्रेमी ही धोखा दे जाये, उस समय तो संसार से ही विश्वास उठ जाता है। अक्सर अनेकों प्रेमी ऐसी स्थिति में जीवन से ही थक जाते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने असफल प्रेम को भुलाने के लिये शराव का सहारा लेते हैं। कुछ प्रेम की असफलता को अपमान से जोड़ अपराध की राह पर चलने लगते हैं। पर ऐसे बहुत कम होते हैं जो हार के बाद भी जीतने का प्रयास करते हैं। गिर कर फिर से उठ खड़े होते हैं। अपनी कमजोरी को ही अपनी शक्ति बना लेते हैं।
प्रवेश बहुत देर तक अचित्या की बातें सुनता रहा। आज उसे अचित्या की बातें यथार्थ से बहुत दूर मात्र उपदेश लग रही थीं। भला जिस व्यक्ति का सर्वस्व लुट चुका है, उसका मन किस तरह आराम पायेगा। वह कैसे दुखी नहीं होगा।
प्रवेश चुपचाप सुन न सका। अचिंत्या भी प्रवेश को सही राह पर लाये बिना रुकने बाली न थी। इस समय वह कुछ कठोर लग सकती है। उनकी वाणी भी कठोर बन सकती है। अचिंत्या जिसे अपने मन मंदिर का देव मान चुपचाप पूजती आयी है, आज उसी से कठोरता बरत रही है। शायद इसीलिये प्रेम करना आसान नहीं होता।
” अचिंत्या। अब मेरे जीवन में कोई उद्देश्य नहीं बचा। मेरा लक्ष्य तो शिवानी की इच्छा से आरंभ होकर शिवानी की इच्छा पर ही पूर्ण होता रहा है। सत्य तो यही है कि मैं खुद अपना लक्ष्य तय कर पाने की स्थिति में कभी भी नहीं रहा। इस समय मैं लक्ष्यहीन हूं। मेरे जीवन का ही अब कोई अर्थ नहीं रहता। अब तो मैं जीती जागती लाश हूं। भला अब मेरे जीवन का ही क्या प्रयोजन। “
” प्रयोजन है प्रवेश। तुम्हें तुम्हारे प्रेम के लिये जीना होगा। तुम्हें तुम्हारे प्रेम के लिये आगे बढना होगा। तुम्हारा प्रेम अभी तुम्हारे लक्ष्य पाने की प्रतीक्षा कर रहा है। तुम्हें तुम्हारा प्रेम पुकार रहा है। “
प्रवेश को एक बार समझ नहीं आया। क्या अचिंत्या भी उसका मजाक बना रही है। उसका प्रेम तो मिट चुका है। कुछ समय पूर्व ही वह अपने प्रेम की चिता जलते देख कर आया है। अब प्रेम ही कहाॅ है। जब शिवानी ने धोखा दिया तो संसार में किसी अन्य लड़की पर क्या विश्वास। नहीं यथार्थ में प्रेम कुछ नहीं होता है। मात्र अवसरवादिता होती है।
पर प्रवेश की विवेचना बहुत छोटी थी। हालांकि अचिंत्या खुद प्रवेश से अपार प्रेम करती हैं। पर वह इस समय अपने प्रेम के विषय में नहीं बता रही है। वह कोई अवसरवादी नहीं है।
अचिंत्या का बोलना जारी रहा।
” अभी तुम्हारे जीवन से प्रेम समाप्त नहीं हुआ है। अभी भी तुम्हारे दिल में कोई है जिसे तुम शिवानी से ऊपर रखते हों।जिसका तुम्हें ध्यान ही नहीं है। एक बेटे के लिये उसका पहला प्रेम उसकी माॅ ही होती है। संसार का कोई भी प्रेम भला माता के प्रेम से किस तरह बराबरी कर सकता है। कभी भी एक पुत्र अपने माॅ के खिलाफ कुछ सुन नहीं सकता है। और यदि सुन सके तो वह सच्चा पुत्र ही नहीं है।
शिवानी के माता पिता ने तुम्हारा या तुम्हारी माॅ का नाम नहीं लिया था। पर उन्होंने किसी अन्य तरीके से तुम्हारी माॅ की आलोचना की तब आपका मुख बता रहा था कि उस आलोचना को तुम सुन ही नहीं पाये। फिर चुपचाप बैठे भी नहीं रह पाये।
सही है कि अभी भी तुम्हारे मन में तुम्हारी माॅ के लिये असीम प्रेम है। हालांकि पहले तुम अपनी माॅ को भी धोखा दे चुके हों। फिर तो तुममें और शिवानी में कोई भी अंतर नहीं है। जो तुमने पहले किया, आज शिवानी भी तो वही कर रही है।
ईश्वर कुछ लोगों को उनकी भूल सुधारने का मौका देते हैं। आज तुम्हें भी वही मौका दिया है। आज तुम्हारे पास लक्ष्य है। तुम्हें अपनी माॅ के सपनों को पूरा करना है। तुम्हें अपनी भूल को सुधारना है। इस समय तुम्हारे पास इसका मौका भी है।
वैसे तुम्हारे पास अनेकों नौकरियों के आफर हैं। पर वे नौकरियां तुम्हें तुम्हारी भूल सही नहीं करायेंगीं। तुम्हारी माॅ के सपनों को पूरा नहीं करेंगीं।
सही बात तो यही है कि जो अपनी माॅ के प्रेम की अवहेलना करता है, उसे जीवन में कभी भी प्रेम नहीं मिलता। पर जब वही अपनी माॅ के प्रेम को पहचान उसके सपनों को पूरा करने चल देता है, उस समय उसका प्रेम भी उसकी वापसी की राह देखने लगता है। एक प्रेम की पूर्ति ही दूसरे प्रेम की राह बनती है। “
प्रवेश अचिंत्या की बातों को कुछ समझा और कुछ नहीं। समझ गया कि उसे अपनी माॅ के सपनों को पूरा करना है। यही उसके जीवन का लक्ष्य है। पर जब वह अपनी माॅ के सपनों को पूरा करने जायेगा तब उसका प्रेम किस तरह उसकी राह देखेगा। शिवानी के प्रेम में खुद को भूला युवक अभी उस मानसिक स्थिति में न था कि वह समझ सके कि जो उसकी राह देखेगी, वह और कोई नहीं बल्कि अचिंत्या ही है।
प्रवेश अपने लक्ष्य को पाने चल रहा दिया। अचिंत्या का इंतजार आरंभ हुआ। निश्चित ही अचिंत्या खुद अपनी तरफ से प्रवेश से अपने प्रेम का निवेदन नहीं करेगी। प्रवेश को खुद ही उसके प्रेम और इंतजार को पहचानना होगा। निश्चित ही आज भी अचिंत्या ने प्रवेश से उसी तरह वार्तालाप की जैसा कि एक मित्र अपने मित्र से करता है। अपने मन के प्रेम को मन में छिपाकर आज वह प्रवेश को लगातार तुम कहकर बोलती रही। जबकि ऐसा करने से उसका मन उसे धिक्कारता रहा। सचमुच प्रेम अनेकों बार अजीब परीक्षा लेता है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’