प्रेमी और पागल व्यक्ति बहुत कुछ एक जैसा होता है। पागल को अक्सर दुनिया का ध्यान नहीं रहता। वह दुनिया के आडंबरों को भूल अपने मन की करता है। वास्तव में देखा जाये तो पागल संसार से पूरी तरह तटस्थ हुआ व्यक्ति है।
  दूसरी तरफ एक प्रेमी को भी संसार का ध्यान नहीं रहता। वह जानता है तो केवल और केवल अपने प्रेम को। अपनी चाहत की इच्छा पूरी करने को वह अपनी प्रार्थना मानता है। अपने प्रेमी की खुशी में ही खुश होता है। अपने प्रेमी के दुख में खुद रोता है। सत्य तो यही है कि एक प्रेमी खुद से अपनी खुदी को भी मिटा देता है।
   जब एक प्रेमी और पागल में इतनी समानताएं हैं, वहीं एक और समानता है। अधिकांश पागल वास्तव में वह प्रेमी ही होते हैं जिन्हें उनके प्रेमी से धोखा मिला हो। जो प्रेम पथ पर अपनी खुदी भी मिटाते रहे और दूसरा उसकी भावनाओं का फायदा उठाता रहा। या तो किसी उद्देश्य के लिये उससे प्रेम का दिखावा करता रहा अथवा वह केवल खेल ही खेलता रहा हो। हो सकता है कि उसे उसमें एक सुनहरा भविष्य दिखाई दिया हो। पर जब उससे भी अधिक सुनहरा भविष्य कहीं अन्य में दिखाई देने लगा हो तो पुराने प्रेमी से तटस्थ होने लगा हो।
   पागल वही होते हैं जिन्हें कोई सहारा न मिले। ऐसे नाजुक समय में एक मित्र की बड़ी भूमिका होती है। मित्र ही उसका हौसला बनता है।
   वैसे मित्रता एक व्यापक अर्थ रखने बाला शव्द है। मित्र की परिभाषा में अनेकों आ सकते हैं। तथा वह जो बिना बताये चुपचाप प्रेम पथ का साधन कर रहा हो, उससे अच्छा मित्र भला कौन हो सकता है। आखिर प्रेम का आरंभ भी तो मित्रता ही है। यदि प्रेम का आरंभ मित्रता न होकर आकर्षण रहा हो तो संभव है कि वह प्रेम कोई प्रेम ही न हो।
  प्रवेश अपनी प्रेमिका शिवानी से बात करने का उताबला था, उसे अपने प्रेम की परीक्षा की सफलता बताना चाह रहा था, उससे आगे की राह पूछना चाह रहा था पर शिवानी प्रवेश का फोन ही नहीं उठा रही थी। प्रेम की अनेकों प्रतिज्ञा करने बाली आज तटस्थ थी मानों कि उसे प्रवेश की कोई चिंता ही न हो।
   दूसरी तरफ प्रवेश अभी भी यह समझने की स्थिति में न था कि उसके साथ धोखा हुआ है। वास्तव में शिवानी के लिये वह एक अच्छे भविष्य की ओपोर्चुनिटी था। एक हौनहार युवक, निश्चित ही अपना अच्छा भविष्य बना लेगा। ऐसे हौनहार युवक के साथ संबंध तय होने में फायदा ही फायदा रहेगा। पर मन में कोई समर्पण या निष्ठा जैसी बात न थी। उसके लिये तो आरामदायक जीवन ही वह ध्येय था जिसके लिये उसने प्रवेश को चुना था।
  दूसरी तरफ वह प्रवेश के संस्कारों से भी परिचित थी। उसे लग रहा था कि कहीं प्रवेश अपने संस्कारों के कारण आरामदायक जीवन को ही न लात मार दे। ऐसी स्थिति की कल्पना से ही वह विचलित हो जाती थी।
जितना समय प्रवेश ने इंजीनियरिंग की पढाई में लगाया, शिवानी उतने समय लगातार प्रवेश को अपनी मन का करने को उकसाती रही। बात बात पर अपने प्रेम का वास्ता देती रही। निश्चित ही प्रवेश की विभिन्न सफलताओं का एक कारण प्रवेश के मन में उसके लिये प्रेम ही था जिससे अभिभूत होकर वह शिवानी की इच्छा पूर्ति एक जुनूनी हद तक करता रहा।
   दूसरी तरफ शिवानी ऐशोआराम की जिंदगी जीने के और भी तरीकों पर काम करती रही। उसकी खोज पूरी हो चुकी थी। इस समय वह जिस लड़के के साथ प्रेम की कसमें खा रही थी, वह अति संपन्न परिवार का युवक, अनेकों कंपनियों का भावी स्वामी था। अब शिवानी को प्रवेश की आवश्यकता न थी।
   निश्चित ही प्रवेश को यह सत्य ज्ञात न था फिर भी शिवानी की चिंता में ही उसका आखरी सैमिस्टर बर्बाद हो जाता। पर ऐसा भला कैसे संभव है। अचिंत्या भला ऐसे कैसे होने दे सकती है। भले ही प्रवेश अचिंत्या से प्रेम नहीं करता है पर उसे सच्चा मित्र तो मानता ही है।
   हाथी निकल गया और पूंछ अटक गयी की कहावत निश्चित ही चरितार्थ हो जाती यदि अचिंत्या प्रवेश के साथ न होती। अनेकों बार प्रवेश का मनोबल टूटा और उतनी ही बार अचिंत्या ने प्रवेश का मनोबल बढाया। अनेकों बार लगा कि प्रवेश अब हार जायेगा। उतनी ही बार अचिंत्या ने उसे समझाया कि तुम हारने के लिये नहीं बने हो। तुम उस माॅ की संतान हो जो केवल जीतना जानती है। अनेकों बार प्रवेश के कदम लड़खड़ाये। उतनी ही बार उसे अचिंत्या का सहारा मिला।
   निश्चित ही आखरी सैमिस्टर में प्रवेश का प्रदर्शन कुछ कम रहा। फिर भी प्रवेश ने बी टेक पूरी कर ली। सभी छात्रों ने आगे का लक्ष्य बना लिया है। पर अभी भी प्रवेश लक्ष्यहीन है। वह नहीं जानता है कि अनेकों सफल साक्षात्कारों में से उसे किस कंपनी को चुनना है। वैसे उसके पास आर्मी से भी आगे के साक्षात्कार का पत्र मिल चुका है। जिसे उसने देखा भी नहीं है।
  लगता है कि अभी प्रवेश को उस सत्य का सामना करना है जिसे सुनकर कोई भी प्रेमी पागलपन की स्थिति में पहुंच जाता है। लगता है कि अभी प्रवेश को सही सहारा देने में अचिंत्या की भूमिका और बढने बाली है। लगता है कि एक बार फिर से प्रवेश के संस्कार जोर पकड़ेंगे तथा अनेकों राहों में वह उसी राह को अपना जीवन का ध्येय बनायेगा जिसे वह इस समय भूला हुआ है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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