डाक्टरों के सारे प्रयासों के बाद भी रामदास जी अपना जीवन बचा न पाये। वास्तव में संध्या से मिलकर उनके जीते रहने का उद्देश्य पूर्ण हो चुका था। अनेकों बार आंसुओं से रामदास ने अपने मन की कुंठा को बाहर निकाला। अनेकों बार मन की तड़फ को उन्होंने ठंडा किया। फिर एक दिन अपनी जीवन लीला समाप्त कर चल दिये। वैसे माना जाता है कि जो मनुष्य पूरे जीवन गलत आचरण करता है, मृत्यु के बाद उसे अधम लोकों की प्राप्ति होती है। पर कुछ कथाएं यह भी कहती हैं कि किसी सच्चे संत की गोद में प्राण त्यागने बाला कभी भी अधोगति में नहीं पहुंचता है। रामदास का सौभाग्य था कि उनके प्राण उस समय छूटे जबकि उनका सर भी संध्या की गोद में था। जीवन पथ के संघर्षों से खुद को शुद्ध करती रही संध्या हर तरह से संत ही मानने के योग्य है।
   पिता की चिता को अग्नि पुत्र देता है। पर पुत्री भी कभी पुत्र से कम नहीं होती है। आजकल तो अनेकों सामाजिक व्यवस्था को बदलने में सक्षम पुत्रियाँ भी पिता को मुखाग्नि दे रही हैं। हालांकि इस परिपाटी का अलग ही कारण है। जिस तरह कन्यादान की परंपरा अपना अलग महत्व रखती है, उसी तरह मुखाग्नि का आशय भी कन्या का अपनी ससुराल को मायके पर प्रधानता देना ही है।
   हालांकि जिन परिस्थितियों में रामदास जी ने जीवन त्यागा था, उन परिस्थितियों में कुछ भी गलत नहीं था। फिर भी संध्या ने उन्हीं परंपरा का पालन किया जो कि धर्म शास्त्रों के अनुसार स्वीकृत हैं। पुत्र की अनुपस्थिति में पुत्री का पुत्र मुखाग्नि देने का तथा बाद में भी श्राद्ध और तर्पण का अधिकारी बताया गया है। प्रवेश जो कि अभी बहुत बड़ा न था, उससे नियमानुसार सारे क्रिया कर्म कराये गये। पर कस्तूरी देवी के कहने पर भी मनोज और ज्योति की जमानत कराने का संध्या ने प्रयास नहीं किया। वैसे भी मनोज और ज्योति अपराध की दुनिया में इतना आगे बढ चुके थे कि उनकी जिम्मेदारी लेना बहुत मुश्किल काम था। निश्चित ही जमानत के बाद दोनों ही कुछ चाल चलते। जिसका सीधा प्रभाव संध्या की नौकरी पर पड़ता। इन परिस्थितियों में संध्या अपने भाई और भाभी पर विश्वास करने की स्थिति में तो न थी।
  कस्तूरी देवी भले ही अपना जीवन संध्या के साथ बिता रही थीं पर उनका मन शुद्ध न था। बेटी द्वारा बेटे की सहायता न करने के कारण रोज मन ही मन उसे बद्दुआऐं देती थीं। ऊपर से संध्या द्वारा अपनी सास जानकी देवी को महत्व देना उसे अखरता था। बेटी की संपत्ति के अलावा बेटी द्वारा मान सम्मान सभी में कस्तूरी देवी को एकाधिकार चाहिये था।
   कस्तूरी देवी को उचित था कि वह संध्या के साथ रहकर आराम से अपना बुढापा गुजार दें। वैसे भी बेटे ने तो उन्हें कहीं का न छोड़ा था। पर मन की कुटिलता आसानी से कब जाती है। कस्तूरी देवी के कुटिल मानस के निशाने पर जानकी देवी के साथ संध्या की भतीजी लक्ष्मी भी थी जो कि संध्या के पास रहकर ही उच्च शिक्षा गृहण कर रही थी।
   अपने माता के संस्कारों से दीक्षित लक्ष्मी वास्तव में सौदामिनी का ही प्रतिरूप थी। फिर सौदामिनी ने भी उसे बहुत समझाकर भेजा था। पर आयु के जिस मोड़ पर वह थी, वह सब कुछ समझने की स्थिति में थी। दूसरों के मन को पढना एक कला है। लक्ष्मी तो इस कला में उस समय से होशियार थी जबकि वह कक्षा आठ की छात्रा थी। ठाकुर नरेश सिंह और जानकी देवी के संध्या के प्रति वास्तविक भाव सबसे पहले उसी को ज्ञात थे। इस समय वह नानी के चाची तथा परिवार के प्रति कुविचारों से परिचित हो रही थी। पर दुखद बात थी कि वह इन बातों को किसी से कह नहीं सकती थी।
   लगता है कि ईश्वर सच्चे लोगों की हमेशा रक्षा करते हैं। अधिक सेवा की चाह में कस्तूरी देवी का बार बार झूठ मूठ को बीमार पड़ना आखिर उनपर ही भारी पड़ गया। भले ही विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है फिर भी आज तक विज्ञान दर्द जांच लेने की कोई मशीन नहीं बना पाया है। दर्द के विषय में हमेशा मरीज की बात ही सत्य और प्रमाण मानी जाती है। विभिन्न जांचों में भले ही परिणाम न आये पर मरीज की बात सही मानकर उसे दर्द निवारक तो दी ही जाती है।
  घर में केवल लक्ष्मी जानती थी कि नानी झूठ बोल रही हैं। पर ऐसे गंभीर मामले में वह कुछ भी नहीं कह सकती थी। वास्तव में वह ही दिन और रात कस्तूरी देवी की देखभाल करती। कस्तूरी देवी भी उस समय दर्द में चीखने चिल्लाने का नाटक करती जबकि लक्ष्मी की पढाई का समय होता। लक्ष्मी की पढाई खराब हो रही है, इसे सोच मन ही मन खुश होती। 
  एक दिन कस्तूरी देवी का झूठ उसपर ही भारी पड़ गया। उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया गया। आखिर लक्ष्मी की पढाई का भी नुकसान हो रहा है। अस्पताल में इलाज के लिये नर्स और डाक्टर तो हैं ही। 
  जल्द ही कस्तूरी देवी स्वस्थ हो गयीं। वैसे भी वह अस्वस्थ कब थीं। उसे तो घर में रहकर लक्ष्मी और जानकी देवी को परेशान करना था। इसके लिये उपयुक्त मौका भी तलाश करना था। 
  पर फिर ऐसा हो न पाया। जल्द ही झूठ सत्य बन गया। कस्तूरी देवी फिर वास्तविक दर्द से तड़पने लगी। इस बार उनकी रिपोर्ट में भी अनेकों घातक बीमारियां मिलीं। जिनका मुख्य कारण अकारण दर्द निवारक दवाओं का अति प्रयोग कहा जाता है। 
   जो संसार में आता है, वह जाता ही है। पर ईश्वर सभी को एक बार अपनी भूल सुधारने का मौका अवश्य देते हैं। कुछ पश्चाताप की पवित्र साधना से जीवन के अनेकों अनुचित आचरणों का भी प्रतिकार कर लेते हैं। पर कुछ उस समय भी अहंकार से खुद को मुक्त नहीं कर पाते। जाते जाते भी मन में वैर लेकर ही जाते हैं। जबकि सत्य तो यही है कि संसार में कोई भी किसी का अपना नहीं होता है। पर अपना तेरी के भावों से अंत तक खुद को मुक्त नहीं कर पाते। भेदभाव की जिस छिद्रयुक्त नौका पर सवार रहते हैं, उस नौका के डुबने की स्थिति में तथा समीप सुरक्षित भूमि होने पर भी वे खुद उस नौका के साथ डुबने लगते हैं। ऐसे भ्रमित बुद्धि बालों पर उच्च मन बालों की संगति भी असर नहीं करती। संभवतः इसी को कुसंस्कार कहते हैं। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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