स्वार्थ में मनुष्य बहुधा अपने रिश्तों की मर्यादा को तार तार करता रहता है। रिश्ते केवल ओर केवल स्वार्थ की भेट चढते जाते हैं। कहानी के जो पन्ने छिपे रहते हैं, जब वे खुलते हैं, उस समय अधिक ही कष्ट दायक प्रतीत होते हैं। महसूस यही होता है कि स्वार्थ भरी कहानी के ये पृष्ठ आखिर खुले ही क्यों। सत्य पता न चलता तब तक इतना ही दुख था। पर सत्य ज्ञात होने पर जो अपार दुख हुआ, उसे झेलना कब आसान था।
   संध्या ने अपने परिवार की खोज में अपनी पूरी ताकत लगा दी। फिर भी उसे सफलता नहीं मिल रही थी। एक दिन जब देवयोग से उसे आंशिक सफलता मिली, उस समय उसे जो कष्ट हुआ, उसके बारे में बता पाना भी कठिन है।
   वास्तव में सत्य सामने ही न आता। यदि ज्योति पूरी तरह पैशेवर मुजरिम होती। अत्याधुनिक कपड़े पहनकर सेल्स गर्ल बनकर घरों में मौका देखकर जो लूट का वह काम कर रही थी, उसमें पकड़ी न जाती। विभिन्न तरीकों से घर में एकाकी स्त्रियों को मूर्ख बनाकर उन्हें बेहोश कर घर से सारे कीमती सामान लेकर चंपत हो जाती थी। वास्तव में यह केवल ज्योति का ही काम न था। खस्ताहाल मनोज के पास इसके सिबाय कोई और चारा भी न था। माता पिता को कहीं असहाय हालत में छोड़ मनोज की चुपचाप अपने ससुराल में बसने की चाहत भी पूरी न हो पायी। स्वार्थ के रिश्ते में दरार पड़ती ही है। जब ज्योति के माता पिता ने उसका सारा धन हड़प लिया, उन्होंने अपनी बेटी को भी घर से निकालने में देर न की।
  इतिहास हमेशा खुद को दोहराता है। पहले संध्या को धोखा देकर उसे असहाय बनाने की कोशिश की। फिर अपने ही माता-पिता के मकान के पैसे लेकर अपनी ससुराल में जा बसे। वही मनोज और ज्योति दर दर की ठोकर खाने को मजबूर हो गये।
  वैसे बुराई की राह पर चलने बालों के लिये ये सब बहाने हैं। सब मिट जाने के बाद भी मेहनत का मार्ग शेष रहता है। कभी भी कोई इतना बाध्य नहीं होता है कि वह अपने भरण पोषण के लिये अपराध का मार्ग चुने।
   वैसे इतने समय में मनोज और ज्योति मंजे हुए खिलाड़ी बन चुके थे। खासकर एक स्त्री होने के कारण ज्योति आसानी से लोगों को विश्वास में ले लेती थी। फिर उचित समय देख हाथ साफ कर लेती थी। दोनों जल्दी जल्दी अपने ठिकाने भी बदलते रहते थे।
   वह ज्योति का दुर्दिन था कि वह पकड़ी गयी। वास्तव में उसका अनुमान सही नहीं रहा। जबकि वह समझ रही थी कि घर में अकेली गृहणी है, उसी समय वह चारों तरफ से घिर गयी। उसे बचकर निकलने का भी मौका न मिल पाया।
  वैसे किसी भी अपराधी से मार पीट करना कभी भी मानवता के अनुसार सही नहीं है। कानून भी इसकी इजाजत नहीं देता है। पर लगता है कि पुलिस द्वारा कठोर तरीकों का प्रयोग करना उनकी मजबूरी ही होता है। ज्योति पहले पुलिस को बेबकूफ बनाती रही। पर जब महिला पुलिस ने बंद कमरे में ज्योति की खातिर करना आरंभ किया, वह तोते की तरह बोलने लगी। उसी में उसने अपना संध्या के साथ रिश्ते की बात भी बतायी।
   संध्या पुलिस विभाग की एक जाबाज अधिकारी थी। उसे दूर दूर तक उसके विभाग के लोग जानते थे। अच्छी बात थी कि ज्योति की गिरफ्तारी के थाने में भी अनेकों उसे जानते थे।
   हमेशा संबंधों को अपने मतलब के लिये प्रयोग करती आयी ज्योति ने इस बार भी केवल पिटाई से बचने के लिये संध्या के साथ संबंध की बात बतायी। संध्या की भाभी होने के कारण उसे फिर ज्यादा गलत व्यवहार नहीं झेलना पड़ा। पर अपने गैंग की पूरी जानकारी देनी पड़ी। मनोज भी जल्द पुलिस की पकड़ में था।
   संध्या के लिये वह दुखद क्षण था जबकि उसने अपने भाई और भाभी को अपराधी के रूप में देखा। धोखाधड़ी से बहुत आगे बढकर अब मनोज और ज्योति अपराधी थे। जिनकी गवाही के मुताबिक ही उन्होंने अनेकों घरों से नगदी और जेवर लूटे थे। उनकी दी गयी जानकारी में कुछ तो ऐसे भी मामले पाये गये कि उनका शिकार गृहणियों की हालत ही बेहोशी की दवा के कारण बहुत खराब हो चुकी थी। एक महिला तो उस बेहोशी की दवा के अति प्रयोग से मृत्यु को भी प्राप्त हो चुकी थी।
  जिस समय मनोज और ज्योति पर गैंग बनाकर अपराध करने, अनेकों महिलाओं की मृत्यु का प्रयास करने तथा एक महिला के मर्डर के चार्ज तैयार किये जा रहे थे। उस समय भी दोनों संध्या से आशा रख रहे थे कि संध्या उन्हें अपने प्रयासों से बचा ले। वैसे भी उन्होंने हमेशा रिश्तों का प्रयोग स्वार्थ के लिये ही किया था।
  वैसे सत्य यह भी है कि दोनों संध्या के लिये फर्ज की अहमियत को नहीं जानते थे। इस समय भी दोनों संध्या पर ही दोषारोपण कर रहे थे जो कि समर्थ होने पर उन्हें नहीं बचा रही है। अपने पतन का कारण भी वह उन मजबूरियों को गिना रहे थे जो कि संध्या द्वारा पूरी तरह मदद न करने का परिणाम थीं।
  रिश्तों को केवल और केवल स्वार्थ की तराजू पर तौलते आये दोनों अपराधियों को मेहनत की महत्ता समझा पाना संभव न था। दोनों की नजर में कर्तव्य जैसी अवधारणा का कोई महत्व न था। शायद कठोर कारावास ही उन्हें कुछ मेहनत की राह सिखा सके।
  मनोज और ज्योति द्वारा प्राप्त अधिकतम जानकारी से अब संध्या अपने माता पिता को तलाश रही है। वैसे मनोज और ज्योति की वर्तमान दशा के कुछ हद तक दोषी वे भी रहे हैं। निश्चित ही मनोज और ज्योति द्वारा उन्हें असहाय छोड़ देना बहुत हद तक उन्हीं के कर्मों का परिणाम था।
    सब जानते हुए भी संध्या अपने माता-पिता को असहाय नहीं छोड़ सकती है। वह उन्हें तलाश लेगी। प्रश्न है कि जब रामदास और कस्तूरी देवी अपनी बेटी से फिर मिलेंगे, उस समय वे अपने मन की पुरानी क्षुद्रता को त्याग पायेंगे अथवा संध्या को फिर से नवीन अवसर की भांति देखने लगेंगे। कहा जाता है कि मनुष्य ने पूरे जीवन जिस तरह का आचरण किया होता है, अंत समय भी वह उसी तरह का आचरण दुहराता है।
    हालांकि जिनपर ईश्वर कृपा करना चाहते हैं, वे अपनी भूल सुधार करने का प्रयास करते हैं। परलोक की अवधारणा सत्य या गलत हो सकती है। फिर भी अपने जीवन के अंतिम समय में भी मनुष्य जिस तरह का निर्णय लेता है, भविष्य में उसी तरह का माना जाता है। इस संदर्भ में ठाकुर नरेश सिंह का उदाहरण जग जाहिर है। पूरे जीवन ऊंच, नीच के भेद को मन में रखे रहे तथा जब उन्होंने संध्या को अपनी पुत्रवधू स्वीकार कर लिया, उसी समय से मानवता के पुजारी के रूप में जाने जाते हैं। आज मृत्यु के बाद भी समाज को राह दिखा रहे हैं।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

<p><img class="aligncenter wp-image-5046" src="https://rashmirathi.in/wp-content/uploads/2024/04/20240407_145205-150x150.png" alt="" width="107" height="107" /></p>