किसी को धोखा देकर, उसका सर्वस्व छीनकर, विश्वास को रोंदकर जो संपत्ति जमा की जाती है, उस संपत्ति को मिटते देर नहीं लगती। हिमालय के समान संपत्ति का ढेर भी धीरे धीरे कम होता जाता है। वास्तव में मेहनती व्यक्ति ही संपत्ति का मोल जानता है। दो बक्त की रोटी के लिये पसीने बहाने बाले किसान द्वारा मात्र चंंद रुपयों की जिस तरह फिक्र की जाती है, वैसी चिंता दूसरों के धन पर मौज करने बाला कभी भी नहीं करता है। उसे यही लगता है कि धन का पर्वत शिखर कभी भी समाप्त नहीं होगा। फिर सामान्य गति से अधिक तेजी से वह धन को अपने शौक मौज पर उड़ाकर खाली हाथ हो जाता है। 
   मनोज और ज्योति ने संध्या को धोखा देकर उसकी लगभग सारी जमा पूंजी हड़प ली थी। दुख की बात थी कि इस षड्यंत्र में संध्या के माता पिता रामदास और कस्तूरी देवी भी शामिल थे। पुत्र मोह में वह अपनी बेटी के प्रति साधारण धर्म भी निर्वाह न कर पाये। बेटे को मालामाल करने की योजना में अपने बेटे के अनुचित कर्म में साथ देने लगे। 
  संध्या से मिले धन को अपने शौक मौजों पर उड़ाने में कोई भी कम नहीं पड़ रहा था। पूरे घर में बेशकीमती मार्बल का फर्श तैयार किया गया। घर के सारे फर्नीचर बदले गये। दरबाजे और खिड़कियां भी बेशकीमती बिलायती लकड़ी से तैयार किये गये। पूरे मोहल्ले में रामदास जी का घर अलग ही दिखने लगा। 
   ज्योति के आभूषणों की सूची में अब हीरे से कम के आभूषण न थे। स्वर्ण आभूषणों को वह अपनी शान के खिलाफ समझने लगी। 
   पैसा ही पैसे को बढाता है। यदि संध्या के धन को किसी रोजगार में लगाया जाता तो वह निश्चित ही पूरे परिवार को आजीवन रोजी रोटी प्रदान करने में समर्थ होता। आजीवन उनके शौक मोजों को पूरा करता रहता। 
पर ऐसा हो न पाया। बेईमानी से अर्जित सारा धन मिट गया। घर के फर्श पर लगा बेशकीमती संगमरमर अब उन्हें उनकी मुर्खता की दास्तान सुनाने लगा। बिलायती लकड़ी के बने दरबाजे भी पहली ही भांति मात्र घर की सुरक्षा में समर्थ थे। फिर भी बहुत समय तक प्रदर्शन की चकाचौंध के कारण भूल समझ में नहीं आयी। 
  संध्या को धोखा देने के लिये परिवार में जो एकता हुई थी, उसमें दरार आने लगीं। एक दिन संगमलमर के महल से बाहर चीखने और चिल्लाने की भी आबाज आने लगीं। पता नहीं चल रहा था कि कौन किसपर चिल्ला रहा है। कौन किसको दोष दे रहा है। कौन किसे उलाहना दे रहा है। 
  दुनिया हमेशा ही मौके को भुनाना जानती है। इस झगड़े में भी कुछ मतलबी अपना फायदा देख रहे थे। वैसे यह तो संसार का दस्तूर रहा है। अनेकों बार सहारे के लिये उठते हाथ वास्तव में पूरी तरह बेसहारा बनाने के लिये उठते हैं। 
   पहले घर के बेशकीमती सामान बिके। ज्योति के रोने धोने पर भी उसके हीरों के आभूषण बहुत सस्ते में बिक गये। अंत में रामदास जी का वह संगमरमी महल औने पौने दाम में बिक गया। 
   भूलना केवल बीमारी ही नहीं होती है। अपितु बड़ी बड़ी बीमारियों का इलाज भी होता है। बुरी यादों को भूलकर ही आगे बढा जाता है। फिर किसी अन्य के लिये तो कौन रुकता है। मौहल्ले बालों के लिये रामदास जी का परिवार एक इतिहास बन चुका था। हालांकि उस इतिहास में भी आज भी संध्या का संघर्ष और उसकी परिवार के लिये निष्ठा लोगों के मध्य चर्चा का विषय बन जाती थी। कीचड़ में गिरा रत्न भी पवित्र माना जाता है। संसार में अपनी चमक बिखेर सकता है। 
   वैसे किसी को उम्मीद न थी कि संध्या कभी वापस आयेगी। इतना बुरा होने पर भला कौन उसे भुला पाता है। ईश्वर भी अच्छे लोगों की कितनी परीक्षा लेते हैं। बेचारी लड़की को न तो अपने मायके में स्नेह मिला और न ससुराल में सम्मान। फिर भी अपने बलबूते जीवन की राह पकड़ रही है। 
   हीरे को घिसने का ही परिणाम होता है कि वह अपनी चमक दुनिया में बिखेरने में सक्षम होता है। आज संध्या अपने ससुराल में अपना पूरा सम्मान पा रही है। अपने मायके के मौहल्ले में भी आज भी याद की जाती है। अनेकों वर्षों इसी मोहल्ले में रहते आये रामदास जी और कस्तूरी देवी तो कभी के संसार की यादों से उतर जाते यदि वे संध्या के माता पिता न होते। 
   संध्या को जिस समय अपने परिवार की याद आयी, वह शायद सही समय न था। यदि कुछ पहले याद आ जाती तो वह निश्चित ही उन्हें बर्बाद न होने देती। अथवा उसे सही समय पर अपने परिवार की याद आयी। वैसे भी धन से सहायता करने से भी कब सहायता हो पाती है। बस मन में संतोष हो जाता है। बिना मेहनत के मिला धन फिर से अपनी राह बना लेता है। 
   लोग कितना गलत सोचते हैं कि जीवन में केवल पुत्र ही काम आते हैं। वास्तव में अपने परिवार के साथ जो भावनात्मक लगाव बेटियों के मन में होता है, वह बेटों के मन में बहुधा नहीं होता है। 
  दुखी मन से संध्या अपने माता, पिता, भाई और भाभी को तलाश रही है। इसके लिये उसने पुलिस विभाग में कार्यरत होने का भी पूरा लाभ उठा रही है । विभिन्न खबरियों को भी अपने परिवार की जानकारी के लिये लगा रही है। 
  जब पूरा पुलिस विभाग ही संध्या की मदद कर रहा है , उस समय यह स्वीकार करने में कोई भी संदेह का आधार नहीं है कि रामदास जी और उनका परिवार मिलेगा नहीं। पर परिवार के मिलने के बाद भी संध्या उनकी मदद कर पायेगी, इस बात में संदेह करने के कुछ कारण बन रहे हैं। 
   वैसे एक बेटी के रूप में संध्या अपने माता-पिता के लिये अपने प्राण भी अर्पण कर सकती है। पर सत्य तो यही है कि अब संध्या केवल रामदास और कस्तूरी देवी की बेटी ही नहीं है अपितु एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी है। जिसके लिये कानून की हिफाजत करना उसका पहला धर्म है। तथा उस धर्म के बीच उसका कोई भी व्यक्तिगत रिश्ता नहीं आ सकता है। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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