शोभा को सोहन के जीवन में आये अनेकोंं वर्ष हो चुके थे। अतीत की एक घटना के कारण चरित्रहीनता का दाग झेलने बाली शोभा एक अच्छी धर्म पत्नी सिद्ध हुई। सचमुच अब सोहन का मन भी नियंत्रण में था। वैसे दुनिया के लिये भले ही वह सन्यास का ढोंग कर रहा था पर वह खुद अपने मन के विकार को समझता था। एक पुरुष के विकास में स्त्री का भरपूर योगदान होता है। सोहन भी अब अपने जीवन पथ पर आगे सफलतापूर्वक बढ चुका था। अपनी पुश्तैनी खेती की देखभाल वही करता था। हालांकि कुछ तथाकथित समझाने बालों ने सौदामिनी के मन में भी भेद डालना चाहा। सोहन जिन खेतों पर खेती कर रहा है, उनका आधा हिस्सा उसका होता है। फिर यदि सोहन का मन फिर गया तो कुछ भी हो सकता है।
   सौदामिनी का मन इतनी छोटी छोटी बातों पर विचार करने का न था। प्रेम की नींव विश्वास पर होती है। संसार से कोई भी अपने साथ संपत्ति नहीं लेकर जाता है। संपत्ति तो संसार में निर्वाह करने मात्र का साधन मात्र है। यदि कुछ संपत्ति त्यागकर भी आपस में प्रेम बना रहे तो मनुष्य को यही उचित है कि वह प्रेम का मार्ग चुने। फिर उसे भी किस बात की कमी है। उसकी अच्छी नौकरी है। आय का पर्याप्त साधन है।
  सत्य तो यह है कि स्नेह का पथ पकड़ परिवार में अपना तेरी जैसी कोई बात न रही। सोहन भी परिवार के लिये खर्च करता। और सौदामिनी तो इस विषय में उत्तम थी ही।
    केवल एक स्त्री ही पुरुष का सहारा नहीं होती है। अपितु पुरुष भी स्त्री को सहारा देता है। यद्यपि इतने समय के बाद शोभा द्वारा दुबारा से मैडीकल की पढाई करना संभव न था। फिर भी शोभा ने आगे की पढाई आरंभ की। हालांकि आरंभ में शोभा को पढने के लिये बाहर भेजते समय सोहन भी भयभीत हुआ। पुरुष मन आसानी से विश्वास करने को तैयार न था। फिर भी सोहन ने विश्वास किया। तथा उसे कभी भी नहीं लगा कि शोभा ने उसके विश्वास का अनुचित फायदा उठाया है।
  विशेष आपत्ति काल में धर्म भी झूठ बोलने की इजाजत देता है। कुछ परिस्थितियों में फरेब करना कोई गलती नहीं होती है। एक बार आपत्ति से निकलने के बाद धर्म की राह पर चलने बालों को भी शायद आपत्ति से निकलने के लिये किये अधर्म का फल न मिलता हो।
संतोष और सावित्री ने अपने जीवन में धर्म से चलने का निश्चय कर लिया पर विभिन्न आपदाओं से पार पाने के लिये उसने एक बार अपनी सारी चतुराई का प्रयोग किया। वैसे उसकी बेईमानी की काफी संपत्ति जब्त हो चुकी थी। फिर भी उसके पास जितनी भी शेष बची थी, वह सारी उसने बेदाग होने में कुर्बान कर दी। सही स्थानों पर उसने रिश्वत की भेंट भी चढाई। आश्चर्य की बात कि जैसे ही उसकी सारी रिश्वत की आय समाप्त हुई, वह सारे आरोपों से मुक्त हो गया।
   अब संतोष और सावित्री भी कम खाना और गम खाने के सिद्धांत पर चल रहे थे। सरस्वती भी मेहनत से अपने बच्चों को पाल रही थी। अच्छे आचरण का प्रभाव प्रेम और सम्मान के रूप में दिखाई दे रहा था।
  वैसे तो ठाकुर नरेश सिंह पहले ही काफी आयु के थे। अब उनका जीवन संवरण का समय आ गया। बीमारी का बहाना बना। संतोष, सावित्री और सरस्वती सभी उन्हें देखने आये।गांव से भी छोटा भाई सुजान सिंह अपने परिवार सहित आ गये। संसार त्यागने से पूर्व जो अपने पूरे परिवार के दर्शन कर संसार त्यागता है, उसे निश्चित ही खुशकिस्मत कहा जाता है। जिस समय तक ठाकुर नरेश सिंह दुनिया से विदा हुए, तब तक पूरा परिवार रिश्तों के सूत्र में बंध चुका था। हालांकि जाने बाले की याद आती है। उनके दुख में आंखों से आंसू बहते ही है।
   जिस समय ठाकुर साहब अपनी पुत्रवधू संध्या के पास रहने आये थे, उस समय लक्ष्मी कक्षा आठ की छात्रा थी। इस वर्ष उसने इंटरमीडिएट की परीक्षा दी हैं। सुंदरता और बुद्धि दोनों में ही उसके बराबर की लड़की गांव में नहीं है। इस समय उसकी शक्ल बहुत कुछ अपनी माॅ सौदामिनी से मिलती है।
   लक्ष्मी का परीक्षा परिणाम आशातीत रहा। सोहन ने पूरे गांव में मिठाई बाटी। लक्ष्मी जैसी होनहार छात्रा को आगे भी पढने का मौका मिलना चाहिये। उसे शहर के छात्रावास में भेजने का विचार चल रहा था। अपनी ममता को मन में छिपा सौदामिनी भी लक्ष्मी से दूरी की तैयारी कर रही थी। आखिर बेटी के लिये इतना दुख तो सहना ही होगा। गांव में रहकर लक्ष्मी ने इतनी पढाई कर ली, यही बड़ी बात है।
   पर लक्ष्मी को छात्रावास भेजने की योजना फलीभूत न हो पायी। संध्या उसे अपने साथ लेकर चलने के लिये गांव आ गयी। लक्ष्मी पर उसका भी पूरा अधिकार है। वह लक्ष्मी को अपने साथ रखकर आगे की पढाई करायेगी।
   लक्ष्मी जब चाची के साथ शहर जाने को तैयार हुई तब न चाहते हुए भी सौदामिनी की आंखे नम होने लगीं। बड़ी देर तक वह लक्ष्मी को अच्छी अच्छी बातों की सीख देती रही। कभी जब सौदामिनी विवाह के बाद ससुराल चली थी, उस समय उसकी माॅ ने भी उसे सीख दी थीं। वही सीख थोड़ा घुमा फिराकर वह अपनी बेटी को दे रही थी। वैसे भी बेटियां प्रत्येक घर को अपना घर बनाने में सक्षम होती है।
   ” लक्ष्मी। ध्यान रखना। कभी भी चाची को अपनी माॅ से कम मत समझना। कभी भी उनकी बात को मत काटना। यदि कभी गुस्से में चाची नाराज भी हो जायें तो भी उनकी इच्छा को मान देना। यह केवल आज की बात नहीं है। कभी तुम विवाह कर अपने घर भी जाओंगी। उस दिन के बाद भी…. ।”
  फिर सौदामिनी कुछ बोल न पायी। उसकी आंखों से आंसुओं का सैलाब निकला जिसने आगे की बात पूरी कर दी। लक्ष्मी भी अपनी माॅ के गले से लगकर रो दी।
   अपने चाहे कैसे भी हों, हमेशा याद आते हैं। एक माॅ और बेटी की विदा का दृश्य देख संध्या भी उस संबंध की याद कर रोने लगी जिसे वह बहुत समय पूर्व भूल चुकी थी। क्या उसने इतने समय में अपने माता-पिता की खोज खबर ली। वह अब किस हाल में हैं, क्या उसे पता है।
   जिन यादों को मन के किसी कौने में संध्या ने दफना दिया था, आज वे यादें अपनी कब्रों से निकल उसे वैचैन कर रही थीं। लगता है कि संध्या एक बार फिर से अपने मायके की खबर लेगी। ईश्वर करे कि उसके मायके में सब ठीक हों। उसके माता, पिता, भाई और भाभी सब कुशल से हों।
  पर एक सत्य यह भी है कि जो रिश्तों को ही अपने स्वार्थ पूर्ति का आधार मानते हैं, वे जीवन में कभी भी खुश नहीं रहते। पल पल अपने दुष्कर्मों की आग में जलते हैं। ईश्वर भी ऐसा विधान बनाते हैं कि किसी पापी के पाप की अग्नि भी उसी धर्मात्मा के चरणों की रज से शांत होती है, जिसका अहित करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी हो।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *