शाम को सौदामिनी के आने के बाद सोहन ने उससे भी सन्यास की आज्ञा मांगी पर सोहन के मन की कमजोरियों से पूरी तरह परिचित सौदामिनी ने उसे सन्यास की आज्ञा नहीं दी। आखिर सन्यास लेना कोई खेल नहीं है। जब तक मन में पूर्ण वैराग्य का उदय नहीं हो जाता तब तक सन्यास लेने के बाद भी सन्यासी का मन संसार में ही भटकता है। बार बार जीवन में मिली बुरी यादों से परेशान होता है। वास्तव में बुरी यादों के कारण लिया सन्यास कभी भी सन्यास नहीं बन पाता है। यादें बार बार साधक के मन को विचलित करती हैं। बार बार उसके धैर्य की परीक्षा लेती हैं। वैसे तो परिस्थितियां प्रत्येक साधक के मन के धैर्य की परीक्षा लेती हैं। उस परीक्षा में वही उत्तीर्ण होते हैं जिनके मन में सच्चा वैराग्य का उदय होता है।
   सोहन ने अपना पक्ष पूरी तैयारी के साथ रखा पर इस बार उसकी कोई भी चतुराई सौदामिनी को भ्रमित नहीं कर पायी। वैराग्य तो बहुत आगे की बात है। अभी तो नियमित सांसारिक व्यवहार में भी मन शुद्ध नहीं है। यदि ऐसा होता तो एक बार जिस स्त्री को माॅ बोल दिया, उसके प्रति मन में माॅ के अतिरिक्त दूसरे भाव कैसे आये। सांसारिक संबंध भी वचनों की मर्यादा रखते हैं। माता, बहन या पुत्री से व्यवहार केवल मन से ही होता है।
  यदि मन में स्त्री लोलुपता न होती तो मात्र एक बार कहने से ही अपनी पुरानी प्रेमिका के समक्ष अपना प्रणय निवेदन करने न पहुंच जाते। पहले उसकी नवीन परिस्थितियों पर विचार करते।
   यदि संसार के व्यवहार से ही विरक्ति की राह मिलती है तो फिर यह सत्य है कि आज सरस्वती आपसे अधिक उच्च स्थिति में है। सरस्वती आज खुद से अधिक अपने बच्चों का हित समझने लगी है। जब मनुष्य केवल खुद के सुख की धारणा से आगे बढकर सोचने लगता है, उस समय वह सन्यास के मार्ग की तरफ कदम बढा चुका होता है। धीरे-धीरे पूरे संसार का हित रह जाता है। मैं और अहम जैसी धारणा ही नष्ट हो जाती है।
    विश्व बंधुत्व के जिस सिद्धांत को हिंदू धर्म का प्राण कहा गया है, वही तो यथार्थ सन्यास है। यदि मन में यथार्थ वैराग्य न हो, उस समय केवल सन्यासी के वस्त्र धारण कर लेना भी सन्यास नहीं होता है। सन्यास मन का संयम करना है।
   कभी महराज मनु ने मन के संयम के लिये विवाह की व्यवस्था तैयार की थी। उन्होंने विवाह को मन के संयम करने का आसान तरीका बताया है। मन को संयम में न रख सन्यासी भी विभिन्न माता और बहनों पर अपनी बुरी नजर रखने लगता है। खुद के साथ साथ समाज को भी पतन की राह पर ले जाता है।
   सौदामिनी ने पहले ही सोहन को वचन दिया था कि यदि उसे सरस्वती का सहारा न मिला, उस समय भी वह माॅ के रूप में उसे सहारा देगी। सौदामिनी किस तरह सोहन को सहारा देगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। निश्चित ही सोहन एक कमजोर मन का युवक है। उसे उसी के हिसाब से सहारा देना होगा। यदि उसे अकेला छोड़ दिया गया तब वह निश्चित ही पतन की राह पकड़ लेगा। जबरदस्ती का संयम कभी भी संयम नहीं होता है। विश्व बंधुत्व और जनकल्याण की राह पर चलने के लिये भी मन को आधारभूत मजबूती की आवश्यकता होती है। लगता है कि सोहन के मन में अभी वह मजबूती भी नहीं है।
   माना जा सकता है कि सौदामिनी निश्चित ही सोहन के लिये उपयुक्त सहारा तलाशने में कामयाब हो जायेगी। पर लगता है कि अभी सोहन को भी मन के अहम को छोड़ना होगा। दूसरों के दोष देखने के बजाय खुद के दोषों पर भी विचार करना होगा। केवल पाने के अतिरिक्त देना भी सीखना होगा। सहारा लेने के साथ साथ यथार्थ में सहारा बनना होगा। एक सही कार्य आरंभ करने के लिये संसार की आलोचनाओं को भी सहन करना सीखना होगा। इन सबके अतिरिक्त उसे सौदामिनी के निर्णय पर विश्वास करना सीखना होगा। आखिर सौदामिनी उसकी माँ है। तथा माॅ कमी भी बेटे के लिये न तो गलत सोचती है और न ही गलत करती है।
  लगता है कि अब सौदामिनी के प्रयासों से सोहन के अतिरिक्त एक अन्य जिंदगी का उद्धार होने बाला है। फिर भी लगता है कि यह इतना आसान नहीं है। अभी तक गांव बालों के लिये श्रद्धा का पात्र रही सौदामिनी को भी समाज की आलोचना का पात्र बनना हो सकता है। वैसे भी समाज का प्रतिकार कब आसान है।
   वैसे उचित तो यही है कि सौदामिनी इन सभी बातों से दूर रहे। वह केवल खुद की और अपनी बेटी के भविष्य की चिंता करे। पर लगता है कि सौदामिनी के लिये यह संभव नहीं है। वह अपने पुत्र सोहन को उसके हाल पर छोड नहीं सकती है। अपने पुत्र के लिये वह भी समाज के छोटे निर्णयों के खिलाफ जा सकती है। संध्या की तरह वह भी समाज को झुका सकती है।
   हालांकि संध्या की और सौदामिनी की परिस्थितियों में कुछ अंतर भी है। संध्या को किसी का भी सहारा न था। पर सौदामिनी एकदम अकेली नहीं है। उसके ससुर और सास उसके हर निर्णय में उसके साथ खड़े हैं। निश्चित ही एक बार आरंभ की देर है। अंत सौदामिनी के ही पक्ष में रहेगा। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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