आखिर एक दिन सौदामिनी ने सोहन से स्पष्ट बात करने का निश्चय किया। आखिर वह चाहता क्या है। क्यों पड़ोसी उसका पक्ष लेकर रोज टोकते हैं। क्यों वह किसी को रोकता नहीं है। क्या इन सबमें उसकी भी रजामंदी है। 
  उस दिन सौदामिनी का अवकाश था। वैसे सौदामिनी का अवकाश होना या न होना बराबर ही होता था। स्वास्थ्य केंद्र के अलावा कहीं अड़ोस पडोस में किसी की भी तबीयत खराब हो जाने पर सौदामिनी ही उसका प्रारंभिक इलाज करती थी। दवाइयों के विषय में वह इतना तो जानती ही थी कि छोटी मोटी समस्याओं का निराकरण कर सके। 
   पहले भगवान सूर्य की भार्या देवी ऊषा का आगमन हुआ। पीछे पीछे भगवान सूर्य भी अपनी रश्मियों के साथ गगन मंडल पर आ गये। परिवार के सभी सदस्य कलेऊ कर रहे थे। सौदामिनी ने इसी समय सभी के सामने बात करने का निश्चय किया। 
   ” लाला जी। कल सुनंदा चाची कुछ कह रही थीं। दो दिन पहले मनोहर काका को दवाई देने गयी तब वह भी कुछ कह रहे थे। मनोहर काका तो यह भी बोल रहे थे कि उस बात के लिये आप खुद तैयार हो। आखिर ऐसी क्या बात है जो कि आप गांव बालों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। घर में स्पष्ट बात कहें। “
   सोहन को लगा कि उसकी मुंह मांगी मुराद पूरी होने जा रही है। वह सौदामिनी का अबलंबन बनने का, लक्ष्मी के प्रति जिम्मेदारी का, माता पिता की सेवा रूपी धर्म का, परमार्थ दर्शन का लंबा भाषण सुनाने लगा। उस समय सोहन की बातों को सुन यही लगता कि मानों सन्यास की भट्टी में तपकर एक शुद्ध स्वर्ण अपनी चमक बिखेरने को तैयार है। यही मनुष्य की होशियारी है कि वह अपनी कामुकता को भी परमार्थ का रंग दे देता है। 
    सौदामिनी ने पूरी बात ध्यान से सुनी। इस दौरान उसने एक भी ऐसा शव्द न कहा जिससे उसकी मन की बात पता चल सके। शायद यह मान्यता गलत है कि स्त्रियां अपने मन के भावों को तुरंत बाहर निकाल देती हैं। शायद स्त्रियों का मन वह गहरा सागर होता है जहाँ असंख्य मोती तल में छिपे रहते हैं। उचित समय पर ही सागर उन्हें बाहर फेंकता है। आज वही उचित समय था। सौदामिनी के मन रूपी सागर से संस्कार रूपी अनेकों मोती बाहर निकलने के लिये सौदामिनी के निर्देशों की प्रतीक्षा कर रहे थे। 
   सौदामिनी ने बोलना आरंभ किया। जो केवल सौदामिनी का निश्चय ही नहीं था अपितु सोहन की जीवन की राह भी था। 
  ” लाला जी। जब मैं विवाह कर इस घर में आयी थी, उस समय मुझे आपमें एक मित्र नजर आता था। वैसे भी देवर को भाभी का मित्र ही कहा जाता है। जिससे भाभी अपनी मन के सारे भावों को व्यक्त कर सकती है। 
   जो संसार त्याग जाते हैं, उनकी अच्छी अच्छी बातों को ही याद करना चाहिये। पत्नी के लिये उसका पति उसका देवता होता है। मैंने हमेशा अपने पति को अपना देवता समझा। इसमें कुछ भी छिपा नहीं है कि मेरे पति को मेरी आपसे नजदीकी पसंद नहीं थी। इसके लिये उनका मुझसे जैसा व्यवहार था, वह भी कोई छिपा हुआ नहीं है। 
    निश्चित ही मेरे मन में आपके लिये कोई गलत भाव न थे। पर शायद मेरा मन उस ऊंचाई पर न था। जब लक्ष्मी के पिता जी के गुजर जाने के बाद पिता जी ने मेरा विवाह आपके साथ करना चाहा, उस समय मेरे मन में एक अलग ही खुशी थी। एक दोस्त हमेशा अच्छा जीवन साथी सिद्ध होता है। मुझे लग रहा था कि मेरा नया दांपत्य जीवन मेरे जीवन में खुशियां ला देगा। 
  लाला जी। आप भूल रहे हैं। उस समय आपने मुझे माॅ कहा था। सत्य कह रही हूं, उस समय मेरा मन वेदना की अग्नि में जलने लगा। वह वेदना इस बात की न थी कि आपने मुझे स्वीकार नहीं किया। सत्य में वह वेदना इस बात की थी कि मेरे मन ने कभी भी इतना बड़ा नहीं सोचा। शायद यह मेरे मन की कमजोरी ही थी कि लक्ष्मी के पिता जी मुझसे नाराज होते थे। मुझे लगता था कि यदि मेरा मन भी इसी तरह विशाल होता तो मुझे निश्चित ही अपने पति का प्रेम मिलता। फिर मेरे पति भी उस मार्ग का अनुसरण न करते। 
जीवन और मरण तो ईश्वर के आधीन है। फिर भी मन में आता कि यदि मैं लाला जी के लिये पुत्र जैसी भावना रखती तो निश्चित ही लक्ष्मी के पिता जी जीवित होते। 
   लाला जी। मुझे लगा कि जब जागो तभी सवेरा है। फिर आपसी सबंध तो भावनाओं से ही होते हैं। आपने मेरे लिये जिस भावना को मुख से व्यक्त किया था, मैं मन में आपके लिये वही भावना रखने लगी। 
   मानव मन कमजोरियों का घर है। मेरी आयु भी आपसे कुछ कम ही है। कोशिश करने पर भी ऐसे विचारों का उदय आसन नहीं होता है। 
   लाला जी। उस समय मुझे वास्तव में सहारे की आवश्यकता थी। आपके कारण मेरा मन इतना मजबूत हो चुका है कि अब मुझे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है। 
   लाला जी। आज मैं आपके भीतर और बाहर बहुत अलग देख रही हूं। आज भी मेरा मन व्यथित है। मन से मन की डोर बंधी होती है। फिर आज आपके मन में ऐसे विचारों का आना वास्तव में मेरे मन की भावनाओं पर ही प्रश्न चिन्ह प्रस्तुत कर रहा है। 
   लालाजी। सहारे की आवश्यकता मुझे नहीं अपितु आपको है। कभी आपने जिस लड़की से प्रेम किया था, आज वह निःसहाय है। अकेले जीवन समर में आगे बढ रही है। भले ही पुरानी बातों को भूलना आसान नहीं होता है। फिर भी प्रेम का मूल्य चुकाना होता है। केवल किसी के रूप पर मोहित हो जाना प्रेम नहीं है। प्रेम वास्तव में समर्पण है। प्रेम तो बलिदान है। 
   जीवन के इस सफर में बहुत बदल चुका है। सहारा देने बाले को सहारे की आवश्यकता है। सन्यासी को भी सन्यास सीखने की आवश्यकता है। 
   सरस्वती ने भले ही प्रेम में धोखा दिया था। फिर भी संभव है कि वह आपका सहारा बन सके। यदि वह भी आपका सहारा न बनी, उस समय भी आप निःसहाय नहीं होंगें। बेटे को माॅ का सहारा मिलता रहेगा। जीवन आगे बढता रहेगा। “
  सौदामिनी की वाणी और मन में कुछ भी भेद न था। आज वह शिखर पर खड़ी उस देवी के समान लग रही थी, जिसे सारा संसार माॅ कहकर पुकारता है। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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