एक मुहावरा यह है ‘दीवारों के भी कान होते हैं’।
बड़े अनुभवी थे बुजुर्ग हमारे कहगए जो होते हैं।
सच पूछो तो कान कभी ये दिखा नहीं दीवारों में।
पर ऐसीहै मशहूर कहावत बसी दिलों दीवारों में। 
सोचें तो विश्वास नहीं होता दीवारें कैसे सुनते हैं।
इस पार कोई बात करे उस पार में कैसे सुनते हैं।
दूसरों के घर में जो कान लगाए बैठे वो सुनते हैं।
हाँ यह बात जरूर है बोलें जोर से दूसरे सुनते हैं।
वैसे तो है वस्तुशास्त्र कला में ऐसी-2 कुछ खूबी।
एक से एक बनी  बिल्डिंग हैं उसमें भरी है खूबी।
कहीं हाथ से थपकी दें तो खंभे से निकले ध्वनि।
हर खंभें से अलग अलग निकलती है यह ध्वनि।
मैंने खुद तमिलनाडु एवं नागरकोइल में देखा है।
मंदिर बना विशाल वहाँ है थपकी देकर देखा है।
दीवारों से आरपार इसमें ध्वनि जाते भी देखा है।
कमरों के बीच बने दीवार से ध्वनि आते देखा है।
मुहावरे एवं कहावतें ऐसे ही नहीं कोई अपनाया।
सौ-सौ बार परीक्षण करके तब अनुभव है पाया।
बड़े बुजुर्गों के अनुभव को झुठला नहीं सकते हैं।
घर से बात गई बाहर दीवार के कान हो सकतेहैं। 
सुना पड़ोसी कानों से दीवारों से जो उसपार गई।
आप कहें न कहें किसी से बात मगर हरबार गई।
इसी लिए होशियार रहें जब बात करें तो धीरे से।
कमरों में भले दीवार बनी हो बात करें ये धीरे से।
कभी-2 झाड़ू पोछा करने वाले नौकर चाकर ये।
घर के अंदर काम करें पर घर की बातें पाकर ये।
बाहर भी कहते रहते हैं ये भी हैं दीवारों के कान।
इनको इससे क्या लेनाहै आपका होगा अपमान।
सोचसमझ के बात करें बाहरी व्यक्तियों के आगे।
दीवारों के भी होते कान सोचें ये बोलें कुछ आगे।
रचयिता :
डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव
वरिष्ठ प्रवक्ता-पीबी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.
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