सुनाने जाएं किसे उस  दर्द की दास्तां।
जो मेरे अज़ीज़ ने यूँ ही दे दिया।
अल्फ़ाज़ उसके यूँ असर कर गए दिल पर।
जैसे किसी ने हजारों सुई चुभो दिया।
पी गए दर्द को कड़वी दवाई की तरह।
लिख दिया अशआर और रुबाई की तरह।
झेलते हुए उसे खुद में सिमट से गये।
मिल गए अक्स में रोशनाई की तरह।
बेरुखी उनकी यूँ सताती रही।
वक्त वेवक्त खंजर चलाती रही।
कभी हल्के कभी गहरे ज़ख्म होते रहे।
जर्बों  के तोहफ़े जब तब बदलते रहे।
उनके हर छोटे बड़े कदमों पर ,
फूलों को बिछाया राहों को सजाया मैंने।
उनकी जरूरत जब जियादा लगी,
अश्कों के साये में खुद को पाया मैंने।
ज़र्ब- घाव
अक्स-चित्र
स्नेहलता पाण्डेय ‘स्नेह’
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