ऐ मेरे प्यारे दरख़्तों,
इतनी सहन शाक्ति
कहाँ से पाते हो…
मेरे मन को बहुत लुभाते हो
जब हवा संग इठलाते हो….
आंधी ,तूफान ,बारिश न जाने
कितना कुछ चुप चाप सह जाते हो
इतनी सहन शाक्ति कहाँ से लाते हो ….
मानव जन को कितना,
कुछ दे जाते हो…
फल, फूल ,शीतल छाँव ….
न जाने अनेको व्याधियों
से उन्हे बचाते हो…
ऐ मेरे प्यारे दरख़्त इतना
धीरज कहाँ से लाते हो …
आता है तुम्हारी शरण मे
जब परिन्दा कोई
तुम अपनी बाँह फैलाकर
उसे शरण दे जाते हो …
ऐ दरख़्त तुम मानव जीवन मे,
कितने सुखद पल दे जाते हो..
बचपन मे खुद पर झूला
डलवा कर,झूला झूलाते हो….
बुढा़पे मे अपनी छाँव मे चौपाल
सजवाते हो ….
इतना सब देकर भी
तुम कुछ एहसान न जताते हो
ऐ दरख़्त तुम इतनी
सहन शाक्ति और धीरज कहाँ से लाते हो…
परन्तु मानव तुम्हारी कृतज्ञता न मान कर ,
तुमको चोट पहुँचाता है…
ऐ मेरे प्यारे दरख़्त ,
तुम्हारे हरे भरे जीवन को..
नष्ट करने मे जरा भी न सकुचाता है…
मौन रह कर ,तुम कब तक
इस अन्याय को सहते !
ऐसे कृतज्ञहीन मानव को
सबक तो सीखाना ही था !
प्रकृति की धरोहर है दरख़्त
उन्हे नष्ट करोगे तो…
तो आक्सीजन की कमी से
बेमौत तो मरना ही था….।
अब भी समय रहते संभल जाए
प्रकृति नष्ट हो जाए
उससे पहले प्रत्येक वर्ष
एक वृक्ष जरूर लगाये ।
इस धरा की धरोहर को बचाये ।
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✍️ रानी सिंह