कभी धूप सी जलन देती है
तो कभी छांव बन जाती है
कभी दोस्त बन जाती है
तेरे प्रेम की निशानी ।
सहलाती है बालों को
आंसू भरे गालों को
उन अनुत्तरित सवालों को
पल भर में सुलझाती है
तेरे प्रेम की निशानी
कभी किताबो के बीच
कभी आंचल के पीछे
कभी तकिए के नीचे
मुझे छुपकर बहलाती है
तेरे प्रेम की निशानी ।
कभी रूठ जाती है तुमसे
कभी बार बार मनाती है
छुपकर पूरे घर से वो
पूरी दुनिया सजाती है
संग मुझे भी ले जाती है
तेरे प्रेम की निशानी।
(काल्पनिक)
संगीता शर्मा