डरी सहमी दोनों बच्चियाँ मेधा और मेघा आकर जमीन पर गिरी माँ के पास बैठ गई। रीमा ने उठकर दोनों को अंक में भर लिया था।
तुम जैसी गँवार के साथ नहीं रहना मुझे.. बोल रीमा को धक्का देता हुआ पति अभय अपने बैग के साथ घर छोड़ धरधराते हुए सीढ़ियां उतर चुका था। गँवार शब्द रीमा को थप्पड़ की तरह लगा। अभय और उसके माता पिता ने गाँव की एक शादी में रीमा को देख पसंद किया था और आगे पढ़ाने का भी वचन दे दिया था। तब जाकर रीमा की शादी के लिए रीमा के माता पिता राजी हुए थे.. लेकिन शादी के बाद गृहस्थी के फंदों में ऐसी फँसी कि चाह कर भी आगे पढ़ने की चर्चा नहीं कर सकी। सात साल पहले मेधा और मेघा के एक साथ गोद में आ जाने के बाद तो कुछ और सोचने समझने के लिए रह ही नहीं गया था। फिर भी अपनी गृहस्थी में खुश थी रीमा। गाँव में रहते हुए उसने सिलाई-कटाई भी सीखा था.. कभी ये सारे गुण अभय को लुभावने लगते थे। आज वही अभय गँवार कह हमेशा के लिए जा चुका था। आँखों के सूखे आँसू को पोछती दोनों बच्चियों को पुचकारती सूखे होठों से रीमा हँसने की कोशिश करती है।
पापा हमें छोड़ कर क्यूँ चले गए मम्मी.. अब हमारे पास वो कभी नहीं आएंगे.. उन्हें हमारी याद नहीं आएगी मम्मी.. बच्चियों के मासूम सवाल का कोई जवाब नहीं था रीमा के पास।
बच्चियों के सहारे खड़ी होकर रीमा सोफ़े पर बैठ जग में भरा पानी एक ही साँस में पी गई। किसी तरह बच्चों को खाना खिला रीमा ने सुला दिया। आगे का जीवन कैसे कटेगा..शहर आने के बाद भी घर गृहस्थी में ही सिमटी रही। वैसे भी समाज परित्यक्ता स्त्री को कहाँ स्वीकार कर पाता है। पूरे जमाने की खोट उस एक स्त्री में ही इंकित कर देता है। इन्हीं सोच के साथ कई बार अभय के मोबाइल पर कॉल कर चुकी थी.. हर बार “ये नंबर उपलब्ध नहीं है” रीमा के कानों ने सुना।
सुबह बच्चियों को स्कूल भेज अभय के ऑफिस पहुँचती है रीमा.. अभय नौकरी बदल कर जा चुका था। कोई भी कुछ बताने की हालत में नहीं था। थके मन थके पाँव खुद को घसीटती सी रीमा घर के दरवाजे पर खड़ी थी.. काँपते हाथों से ताला खोल निढाल सी वही जमीन पर बैठ जाती है। बच्चियों के स्कूल से आने पर उसे एहसास होता है कि जाने कब से दरवाजे पर ही बैठी है। इन दो दिनों में ही रीमा की बेटियाँ भी बड़ी हो गई थी। उनके उदास मुरझाए चेहरे रीमा को कचोट उठे।
नहीं मैं अपनी बेटियों को मुरझाने नहीं दूँगी.. मजबूत बनाऊँगी इन्हें.. सोचती हुई रीमा अपने पर्स में कुछ खोजने लगती है। जब पर्स में उसे सही सलामत देखती है तो उसके चेहरे पर आशा की किरण झिलमिलाने लगती है और राहत की साँस लेती हुई रीमा अपना एक सूट थैले में डाल बच्चियों से थोड़ी देर में आने का कह निकल जाती है।
उस विजिटिंग कार्ड के साथ एक बूटिक के सामने आ खड़ी होती है। कुछ दिनों पहले बाजार से लौटते हुए एक कुर्ता बूटिक के बाहर लगा देख रूक गई थी और घर आकर हू ब हू सूट खुद के लिए सिलती है। आज वही सूट रीमा के लिए उम्मीद पैदा कर रहा था। गहरी साँस लेकर हिम्मत कर अंदर जाकर बूटिक की मालकिन अनुराधा कपूर से मिलने की इच्छा व्यक्त करती है।
हाँ जी बोलिए.. मैं ही हूँ.. कपड़ों के पीछे से एक नारी स्वर गूँजता है।
आमने सामने बैठी हुई रीमा अनुराधा कपूर से बिना कुछ छुपाए आप बीती बताती हुई स्वयं के द्वारा स्टिच्ड सूट दिखाकर काम की जरूरत बताती है।
उस स्टिच्ड सूट को देख कर अनुराधा कपूर काफी प्रभावित होती है।
आपके हाथों में बहुत सफाई है.. मुझे कर्मचारी की जरूरत है.. एक सप्ताह मैं आपका काम सामने से देखकर ही फाइनल करुँगी.. अनुराधा कपूर कहती है।
रीमा की आँखों में खुशी के आँसू तैरने लगते हैं। अनुराधा कपूर के हाथों को अपने हाथ में लेकर शुक्रिया अदा कर रीमा घर की ओर दौड़ती है। खाने की इच्छा ना होते हुए भी रीमा अपनी बेटियों के साथ डिनर कर सुनहले कल के इंतजार में नींद के आगोश में चली जाती है।
आज एक नई भोर.. नया विश्वास रीमा के सामने बाहें फैलाए खड़ा था।किसके लिए लगाऊँ बिंदी.. दर्पण के सामने माथे पर बिंदी लगाती रीमा के हाथ ठिठक जाते हैं और मायूस सी रीमा के मन में फिर से विचारों के तूफान चलने लगते हैं।
पर्स उठाकर कमरे से निकलती रीमा एक बार फिर से दर्पण के सामने खड़ी थी।
आज से ये बिंदी मेरे सुहाग की निशानी नहीं.. मेरे स्वाभिमान की निशानी होगी.. मन में दर्प का भाव.. नैनों में झरते नीर के साथ माथे पर बिंदी लगाती रीमा मुस्कुरा उठती है।
आरती झा (स्वरचित व मौलिक)
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