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खुशबुएँ तितलियां और दीपक मेरे मन को लुभाते बहुत है।
क्या कहूँ तुमसे ओ दिलबर मेरे मन को ये भाते बहुत है।
देखती हूँ मैं जब जब ये दीपक,रोशनी सी हूँ मैं जगमगाती।
मुझमें बाकी अभी बांकपन है,हूँ सितारों सी मैं झिलमिलाती।
रोशनी चाँदनी और जुगनू ,मेरे मन को ये भाते बहुत है।
देख के तितलियों की उड़ाने,आसमाँ में उडूँ दिल है करता।
इनको कितना भी देखूं मगर ये दिल मेरा दिल मेरा जाने क्यों न भरता।
रंग पंख और इनकी उड़ाने मेरे मन को ये भाती बहुत है।
जब सराबोर हूँ खुशबुओं से, होती मन को खुशी तब बहुत है।
भीनी भीनी सी इन खुशबुओं में है महकने का मन मेरा करता।
फूल तुम और इतर की ये खुशबू मेरे दिल को भाते बहुत है।
खुशबुएँ तितलियां और दीपक मेरे मन को लुभाते बहुत हैं।
इंदु विवेक उदैनियाँ
स्वरचित