तन

कविता

दोहा

मिला रतन सा तन हमें, कृपा कीन करतार।

नर तन से सत्कर्म कर,तन मिले न बारंबार।

नर तन तो अनमोल रतन है।

विधना ने तन किया सृजन है।

मानव तन मे भी एक मन है।

तन से सुरक्षित अपना वतन है।

तन से ही तो सदा अमन है।

तन तन करके बढ़ता तन है।

तन तन करके घटता तन है।

तन का होता जग में पतन है।

हर तन से सुंदर नर तन है।

तन मन से होता नव सृजन है।

कर्म करे जो वो नर तन है।

बड़े पुण्य से नर तन पाये।

देव भी नर तन को ललचाये।

माता पिता की सेवा कीजे।

तन का तनिक गुमान न कीजे।

जितना बनें तो परहित कीजे।

अमर नहीं तन ये जान लीजे।

यश अपयश करता नर तन है।

ये छल कपट से पाते धन है।

उपकार करे जो वह नर तन है।

जब तक सांसें तब तक तन है।

सांस रुकी फिर माटी तन है।

होता तब सुर पुर को गमन है।

जल जाता फिर रतन सा तन है।

यतन करो इस तन से भाई।

मीठे बैन कहो सुखदाई।

केबल राम भजन चित दीजे।

तन से यतन सदा कुछ कीजे।

बलराम यादव देवरा छतरपुर

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