वो दिन भी क्या दिन थे 
जब डाकिया डाक लात था  
सूनी आंखों के इंतजार को 
 वह खुशियां दे जाता था  
वह पत्र भेजकर अपनों को  
भावों का करते थे इजहार 
 फिर प्रतिउत्तर आने  वाले  
पत्रों का करते इंतजार  
अब नहीं रहे वह पोस्टकार्ड 
 ना दिखते अब अंतरदेसी 
 अब मोबाइल की धूम मची 
 हो जाए भले सब परदेसी 
 अब व्हाट्सएप पर लिखते ही 
पल भर में खबर पहुंचती है  
और लिखना भी सब भूल गए
 अब तो इमोजी दिखती है 
 हंसना रोना गुस्सा होना
 शुभकामनाएं बधाई देना 
 सारे उद्गार प्रकट होंगे  
बस एक इमोजी दबा देना  
पहले तो भावों के साथ-साथ  
एक मनी ऑर्डर भी आता था 
जिससे रिश्ते जुड़ जाते थे 
 रेशम का धागा आता था  
अब ऑनलाइन राखी होती  
और गूगल पर पर पैसा  
ना कोई  डाकिया काका है 
और ना कोई इंतजार वैसा 
   प्रीति मनीष दुबे
   मण्डला मप्र
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