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डर मेरे मन का
तू जरा ठहर!
मुझे मत डरा.
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मैं जानती हूं
तू कितना कमजोर है!
प्रयास की थोङे टक्करों से
तू बिखर —बिखर जाता है
सच्चे प्रयास से तू कितना घबराता है,
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डर तू वहीं ठहर जा।
अभी संकल्प अपनी साज सज्जा में निमग्न है,
तू मत झांक!
तेरा अस्तित्व अब निर्मूल होने को है।
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डर मत खङा कर अवरोध!
कि अभिलाषा ने तूलिका पकङी है,
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कुछ निर्माण के तिनके संजोए
विहग उङान पर है!
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डर मत लिबास बदल..
ना छुप कर मत कर आघात!
कि उत्साह स्वर्णिम पथ पर आरूढ है।
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डर मेरे मन का चुपचाप चला जा
कि झंझावतों से जूझना हमने सीख लिया है,
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डगमगाती नैया संभालने स्त्रीत्व मुखर हो चला है,
उसने –जान लिया की रचनाधर्मिता ही तो उसकी पहचान है।
निर्माण,निर्माण और निर्माण!
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अभिलाषा की अधिष्ठात्री निर्माण!
जीवन की स्वीकृति निर्माण!
समय की उद्घोषिका निर्माण!
पंथ जो स्वावलंबन का,
निर्माण से मुक्तिबोध का!
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डर को निर्मूल कर निर्माण
क्षितिज पर उन्मुक्त हो चला है।
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डर चुपचाप जला जा कि
झंझवतों से जूझना हमने सीख लिया है।
डॉ पल्लवीकुमारी”पाम”