बड़ा खुशनुमा सहर था
ट्रेन का सफर था
मंजिल का इंतजार था
दिल बेजार था
अचानक आंख खुल गई
मन में मिश्री सी घुल गई
खिड़की के पास खड़ी थी
जब उसपे नजर पड़ी थी
जी चाहा पास बुलाऊं
कुछ सुनूं कुछ सुनाऊं
हवाएं बेईमान हो गई
वो भी परेशान हो गई
दायें घूमें बाएं घूमें
बालों से गालों को चूमें
थोड़ी सहमी सकुचाई थी
वो चश्मा नहीं हटाई थी
जानी पहचानी लगती थी
पल में अनजानी लगती थी
अब आंखों पर ना जोर था
जब देखो उसकी ओर था
वो अपनी जगह को छोड़ कर
अब बैठ गई मुंह मोड़ कर
मैं भी मन को आराम दिया
पढ़ने,सुनने का काम दिया
कुछ सफर कटा मैंने देखा
वो आई नजर मेरी रेखा
जो आंखें बंद कर लेटी थी
जो मेरे ससुर की बेटी थी
मैं दौड़के उसके पास आया
उसका बचपन याद दिलाया
फिर बातों का अंबार हुआ
खुशियों का बौछार हुआ
ममता उपाध्याय
वाराणसी