वो देखो अंधेरा छट रहा
उषा की लाली बिखर रही।
फिर  एक नया सवेरा,
सम्मुख है खङा…
वन्दन को,,,अभिनन्दन को..
एक नया अवसर लिए, 
 नव सृजन का द्वार खोले…
प्रतीक्षारत हो ,,बाट जोहते…
उस वीर स्त्री और पुरूष का।
जिनने उतार दिए चीर पीङ की…
कर आलिंगन झंझावतों को,
डग भ्रमित करते ,,,
ह्रदय के शूल को।
तज बढते गए संताप  को,,,
जीवन  के अभिशाप को।
बढ़ रहे साहस के मीत बन 
हर नव दिवस के आमंत्रण पर।
है उजाले अभिनन्दन को आतुर …
पग -पग रौशन करते पथ …
उस वीर  स्त्री और पुरूष का।
जो वीर हैं वो जयी हुए।
काल खंड के
भू -मणडल के
तज निज पीङा को,
प्रहरी हुए… निर्माण के।
अपने कर को अर्पित किए 
धरा के सम्मान में, 
देश के अभिमान में ….
बढ रहे निरंतर साहस को वरण कर।
है दिवस अभिनन्दन को आतुर,
पथ उनका उजालों से रौशन कर।
उस वीर मानव का।
जो अंधकार की कालिमा से…
छीन  रहे नवीन  अवसर।
 सृजन का,,निर्माण  का।
पथ अपने रौशन करते….
उजालों से अभिनन्दन पाकर।
         ✍ डॉ पल्लवीकुमारी”पाम
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *