अंत ही आरम्भ है की राह चल।

है समय तू अभी ही जा सम्भल।
बून्द बून्द को तरस जब जाएगा।
रे मानव तू तब संभल न पायेगा।
निहित कर तू स्वयं में जल संचय का गुण।
भूल बेकार में जल बहाने का अवगुण।
जल है जीवन की यही अवधारणा।
रे मनुज तू अपने मन मे धारणा।
हो रहा प्रकृति का दोहन बहुत।
बच न पायेगा प्राकृत संसाधन कोई।
जीव जंतु प्यास से जब हो त्रसित।
बोल कैसे फिर करलव तू सुन पायेगा।
अपना और अपनों का कुछ ख्याल कर।
मन में अपने गांठ इसकी बांध लें।
जल का हर पल तू सदुपयोग कर।
व्यर्थ न तू जल कभी बहायेगा।
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