छुट्टी की सुबह होती है अलसाई सी
आँखों में नींद स्वप्न नये भर लाती
इन नये सपनों के बिछोनो पर मुझे
प्यार की हल्की सी थपकी दे सुलाती
मीठी सी निदिया के मखमली
एहसास में मैं इतना खो जाती
लगता जैसे किसी परियों के संसार
में जाकर मैं गुम हो जाती..
दिल बस यही चाहता न आज
कोई हलचल हो मेरे आसपास
ना बिखरे मेरा ये सुनहरा ख़्वाब
ये सफर सुहाना इस सुबह का
न कभी खत्म हो किसी मोड़ पर
हर चिंता से परे बस बढ़ती ही
रहूँ इस सुहावनी डगर पर
पर
पता नहीं ये सूरज क्यों हो जाता
इतना उतावला छुट्टी के प्रतिक्षित
दिन भी इसे शुरुआत करने
की बेसब्री इतनी होती की
व्योम पर चमक कर
सुबह का शीघ्र आगाज़ करता
चला जाता पता नहीं
मेरी मीठी नींद का ये क्यों
दुश्मन बन जाता?
और इस अलसाई सी भोर का
मेरा स्वप्न अधूरा ही रह जाता।
स्वरचित
शैली भागवत ‘आस’