खुला हो छाता तभी तक सबको भाता,
बंद हो तो जैसे एक बोझ सा बन जाता,
बारिश की बूंदों से बचने को देता सबको आसरा
फिर भी एक मौसम के बाद ये तन्हा ही रह जाता।
बारिश की बूंदों की तेजी को यही तो सहता,
हवा के थपेड़ों की मार भी यही तो सहता,
खुद को मिटा बचाव बूंदों की मार से करता तुम्हारी
मतलब निकल जाये तो किसी कोने में धूल में लिपटा मिलता।
कितनी मिलती है इंसानों की फितरत भी इससे…..
काम पड़े तो दूसरों का मन से है स्वागत करता,
अपना उल्लू सीधा करने को खुशामद
बहुत है करता,
ओहदा और उम्र का रुतबा जब हो
जाता ख़त्म
तब बेरुखी से इंसान इंसान से ही
किनारा करता।
शैली भागवत ‘आस’