कविता –
यह चार दिन की चांदनी फिर, घनी अंधेरी रात।
यह चार दिन की चांदनी फिर, घनी अंधेरी रात,
हॅंसकर जीवन जी ले साथी,प्रेम से कर ले बात
जीवन जीना ना समझ आसान है
कुछ दिनों का तू यहां मेहमान है
जीतकर भी हार जाता हर कोई
समय यहां सबसे बड़ा बलवान है
रह जाएगा यहां अकेला, कोई न होगा साथ,
यह चार दिन की चांदनी फिर, घनी अंधेरी रात।
चाहता ही हर कोई मुस्कान है
पर मन में बैठा हुआ शैतान है
प्रीति का प्यासा भूखा भगवान है
ना कोई छोटा बड़ा इंसान है
साथ-साथ अपनों के रह ले,हाथ में लेकर हाथ,
यह चार दिन की चांदनी फिर, घनी अंधेरी रात।
अंजान बना किस नशा में चूर है
मानवता इंसानियत से दूर है
क्यों भरा तू अवगुणों से पूर्ण है
क्या मिला कि इतना हुआ मगरूर है
दूसरों के दुःख को हर ले , छोड़ सारे उत्पात,
यह चार दिन की चांदनी फिर, घनी अंधेरी रात।
कर सबका सम्मान सच्चे प्रेम से
मिल जुल संग जीवन जी ले क्षेम से
सबमें ही एक रक्त मांस खून है
फिर दया से क्यों तेरा दिल सून है
परहित में कुछ अच्छा कर लो,छोड़ लालच आघात,
यह चार दिन की चांदनी फिर, घनी अंधेरी रात।
रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी अम्बेडकरनगर यू पी