बहुत चाह है चाय की, कोई पिला दे आज।
पूस कड़कती ठंड में, जाये मिल अब राज।।
सुबह सुबह की ठंड में, हाथ कड़कती चाय।
जो सुख मिले शरीर को, गाथा कही न जाय।।
लगे चाय मेरी प्रिया, मिल लूँ कितनी बार।
मिलता मन को चैन नहि, करता अतिशय प्यार।
सज कर आती सामने, सुगंध तुलसी वास।
वश में कब यह मन रहे, आलस होता नाश।
तीखे नज़रें ले बना, अदरक सखि के साथ।
गले को मिले सुख बहुत, दर्द होत नहि माथ।।
घूँट घूँट कर मैं करूँ, रूप मधुर रस पान।
उस सुख की क्या बात हो, कैसे करूँ बखान।।
घर जब आये प्रिय सखा, दूँ उससे मिलवाय।
देखें आतुर नैन वे , जब तक न गले जाय।।
गर्मी में पीते बहुत, शीतल ठंडी चाय।
बर्फ डाल पीते इसे, मन को अति है भाय।
मौसम हो बरसात का, रिमझिम पड़ती वारि।
आनंद लेते चाय का,नर हो या हो नारि।।
जानी जाती नाम से, लिए बहुत है रूप।
कड़क, श्वेत या श्याम सी, देती मीठी धूप।।
कोई सभा या मंच हो, होती इसकी पूछ।
दर्शन देत न सुंदरी, लगती संगत छूछ।
मोटे लोगों की सखी, रखती इनका ध्यान।
हरी चाय दयालु अति, रखे नाप का आन।।
पैठ बहु राजनीति में, करते नेता नाज।
बनती बिगड़ी बात भी, रख लेती ये लाज।
स्नेहलता पाण्डेय ‘स्नेह’