हम सबकी जिंदगी से जुड़ा हुआ अहम हिस्सा हैं…। शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा जो इसके बारे में ना जानता हो..। हर किसी की जिंदगी से कहीं ना कहीं ये जुड़ा हुआ हैं.. कोई ना कोई कहानी.. कोई ना कोई किस्सा जरूर होगा..। एक ऐसा ही किस्सा  मेरी जिंदगी का भी हैं…। 
बात हैं सन् 1996 की उस वक़्त मोबाइल तो ना के बराबर होतें थे..। घरों में लैंडलाइन फोन होतें थे.. वो भी कुछ ही घरों में..। मनोरंजन के साधनों में रेडियो और टेलीविजन ही मुख्य साधन होता था..। हमारे घर में भी एक शटर वाली ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन था..। हम सयुंक्त परिवार में रहते थे.. एक ही छत के नीचे चालीस लोग साथ में रहते थे..। हमारे घर में सात कमरे थे.. और टेलीविजन एक कमरे में रखा हुआ था..। ज्यादातर तो हम टेलीविजन नहीं देखतें थे क्योंकि मेरे दादाजी जो परिवार में सबसे बड़े थे वो इसके शख़्त खिलाफ थे.. लेकिन हर रविवार को टेलीविजन पर रंगोली नामक एक संगीत से जुड़ा एक धारावाहिक आता था… वो हम सब साथ बैठकर देखते थे..। सभी औरतें और बच्चे अपना काम धाम छोड़ कर वो धारावाहिक बहुत ही चाव से देखते थे..। वो पल अभी भी यादों में बसते हैं..। उसके बाद टेलीविजन पर साप्ताहिक फिल्म भी आने लगी थी..। उस समय के कुछ चर्चित धारावाहिक थें जो हम दादाजी की गैरमौजूदगी में अक्सर देखा करते थे.. जैसे रामायण, सिंधबाद, चन्द्रकांता, नुक्कड़। हर किसी की अपनी ही पंसद थी पर मैं सबकी पंसद में शामिल थी क्योंकि मुझे टेलीविजन से बहुत लगाव था..। 
पर सबसे ज्यादा मेरी रुचि थी क्रिकेट में..। लेकिन अफ़सोस की बात ये थी कि मेरे अलावा घर में किसी को भी क्रिकेट में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी… इस वजह से मैं जब भी मैच हो तो रेडियो का या पड़ौस में चल या दुकानों में चल रहीं क्रिकेट कॉमेंट्री को सुनकर ही काम चला लेतीं थी..। 1999 में हमारे घर में पहली रंगीन टेलीविजन आई..। मेरे भाई ने बीस इंच की रंगीन टेलीविजन खरीदी… अपनी इलेक्ट्रॉनिक की दुकान पर रखने के लिए..। पूरा दिन वो दुकान पर रहतीं थी.. रात को मेरे कहनें पर भाई वो घर पर लेकर आते थे.. दुकान पास ही था… इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं होती थी.. मैं देर रात तक कम आवाज में कमरे में अकेली जागकर टेलीविजन देखा करतीं थीं.. और उन दिनों में क्रिकेट का जो वर्ल्ड कप हुआ था वो भी पहली बार टेलीविजन में देखा था..। लेकिन सब आधे अधूरे मैच ही देखने को मिलतें थें.. जिससे कभी कभी भाई से बहुत झगड़ा भी करतीं थीं.. की टेलीविजन घर पर रखें.. पर मेरी कहाँ चलने वाली थी..। रात को मिलता था वो ही गनीमत थी..। 
उस वक़्त सिनेमाघरों में बहुत भीड़ रहतीं थी.. लेकिन हमारे घर में पाबंदी थी..। हमारे दादाजी को पंसद नहीं था..। हम घर में तेरह लड़कियां थी..। सन् 2001 में एक फिल्म आई थी…. कभी खुशी कभी गम… जो बहुत प्रचलित थी उस वक्त..। एक बार दादाजी कुछ दिनों के लिए घर से बाहर गए हुए थे.. तब हम सब ने मिलकर फिल्म देखने का एक मास्टर प्लान बनाया… लेकिन बाहर नहीं घर में ही..। उस वक़्त आज की तरह सी.डी.प्लेयर नहीं थें…। वी.सी.आर.( विडियो कैसैट रिकार्ड्स) होतें थें…। जो की किराये पर मिलतें थें..। उस समय के बीस रूपये भी बहुत मायने रखतें थें..। हमने घर में ही थियेटर का माहौल बना दिया था और किराये पर कैसेट और प्लेयर लेकर घर में फिल्म देखी..। उस वक़्त ये सब बहुत आंनद देता था..। साथ में मस्ती मजाक.. खाना पीना… बड़ों से छिप-छिप कर टेलीविजन देखना… एक अलग ही अहसास देता था..। 
आज हमारे पास सुख सुविधा का हर साधन हैं..। हर कमरे में अलग टेलीविजन हैं.. वो भी पचास पचास इंच का.. हर तरह की आज़ादी हैं… हर महिने थियेटर में जाकर फिल्म देखने की छूट हैं…. लेकिन वो मज़ा…. वो प्यार…. वो अहसास…. बिल्कुल भी नहीं हैं…। 
वो समय तो वापस नहीं आ सकता… पर उसकी यादें हमेशा दिल में रहेंगीं..। 
जय श्री राम..।
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