बचपन मे हमेशा देखते थे गौरेयों को,
कभी आंगन मे, घर की मुडेंर पर,
आस पास के पेड़ों पर,
सुबह शाम चहकते हुए ,
यहाँ वहाँ फुदकते हुए,
कितनी बार देखा है चहचहाते हुए,
कभी झूंड मे, तो कभी अकेले ही आती,
घर के हर कोनो मे घुस कर न जाने किसे बुलाती,
ची ची कर के फुरररर से उड़ जाती,
आते ही मां आंगन में चावल छीटे देती,
हम बच्चों के मन को तुम कितना हर्षाती,
आऔ तुम फिर से कमी है तुम्हारी,
घर की सदस्य थी तुम हमारी,
छोटी गौरेया रानी हर मुंडेर की रौनक थी तुम,
बच्चों की चेहरे की खिलती हुई हंसी थी तुम,
आ जाओ लौट कर,
सुबह और शाम की शान थी तुम ।।