आसमां से जैसे धीरे धीरे
कोई अप्सरा उतरती है
वैसे ही गांव की शाम
धीरे धीरे आंगन में उतरती है
उसकी सुनहरी काया की
जगमगाहट से पूरा गांव
अपूर्व सौंदर्य से भर उठता है
जैसे झीने से परदे से
छन छन कर आते लावण्य से
पूरा गांव जिंदगी पाता है
पुरवाई की तरह बहने वाली
सांसों से सब पशु पक्षी मानव
जीवन का अहसास करते हैं
जानवर घरों को लौटते हैं
उनके खुरों से उड़ने वाली धूल से
वातावरण धुंधलका हो जाता है
ऐसे माहौल में ही तो गोरी को
प्रियतम से मिलने में मजा आता है
उसके रेशमी बालों के लहराने से
रात उतर आती है गांव में
तब घरों से निकलती है
चूल्हे से उठने वाली धुंआ
और पकवानों की सुगंध
बच्चे खेलकर थके हारे घर आते हैं
किसान खेतों से और
मजदूर काम से लौटकर आते हैं
सर्द रात में अलाव जलाकर
अपने बदन को गरमाते हैं
इतने में चांद भी निकल आता है
चांदनी उसके पीछे पीछे
दौड़ती हुई आती है
जैसे किसी शादी के बाद
कोई दुल्हन अपने दूल्हे के
पीछे पीछे चली आती है
आसमान में तारे टिमटिमाने लगते हैं
अंबर पर उल्टे लटके हुये से लगते हैं
दादी , मां कहानियां सुनाकर
बच्चों को सुलाने का यत्न करती हैं
गृहणियां पिया मिलन के लिए
अभिसारिका का वेश पहनती हैं
मिलन की मादकता से
पूरा गांव महक उठता है
शायद कुछ इसी तरह से
गांव का जीवन गुजरता है
हरिशंकर गोयल “हरि”