मेरा गांव मुझको, बहुत याद आता ,
आंखों को दिखता सुहाना सा मंज़र,
बैलों की जोड़ी, जब खेतों में जाती,
पनघट पर गोरी, जब बातें बनाती,
खेतों में फूलीं, पीली सरसों सुहानी,
डोली में जाती थी, दूल्हे की रानी,
मिट्टी की सौंधी, सुहानी सी खुशबू,
कच्चे सभी घर, पर पक्के बहुत थे,
रहंठों का पानी,जब खेतों में जाता,
पानी में चलते,वो गांव के बच्चे,
खेतों में पकती,जब गेंहू की बाली,
सोने की चादर सी, लगती थी प्यारी,
आमों के बागों में,कोयल का आना,
बरसा के पानी में, नैय्या चलाना,
ढलता जब सूरज, हुई शाम गहरी,
खेतों से आते सभी, अपने घर को,
आंगन की खटिया पर,सब का बैठना,
वो मीठी सी बातें, चहकते थे बच्चे,
अब रहे न वो गांव,न पहले सी बातें,
गांवों का आंगन,हुआ जब से पक्का,
जो पक्के थे रिश्ते, वो कच्चे हुए सब,
न होती कहानी, न पड़ते हैं झूलें,
न चौरे की पूजा, न गईया की सेवा,
अब गांवों में जाना, न अच्छा लगे है,
न पहले सी बातें, न पहले सी रौनक ,
शहर जैसा लागे है, गांवों का मंज़र।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
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