जंग जीतकर घर वापस आने बाले योद्धा की विजय उसके प्रफुल्लित चेहरे को देख ही पहचानी जा सकती है। आंखों में विजय का उन्माद और गर्व से तना हुआ सीना किसी को भी आकर्षित करने लगता है। 
  सैरावत के परिवार से अपना रिश्ता तय कर जब कालीचरण घर पहुंचे तो खुशी के मारे उनके पैर जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। आज बहुत दिनों बाद वह बाजार से मिठाई खरीदकर घर आये थे। सबसे छोटा नाती दादा को देख उनकी गोद में चढने को उताबला होने लगा। शायद दादा के झोले से आ रही मिठाई की गंध उसने सूंघ ली थी। जिसपर वह सबसे जल्द अपना अधिकार चाहता था। बटबारे के लिये संतोष करना अभी छोटे बच्चे ने नहीं सीखा था। 
  ” आजा मुन्ना राजा।” कालीचरण ने बालक को गोद में उठाया। बालक बार बार झोले में हाथ डालने की कोशिश करता रहा। पर मिठाई को न पा सका। नाकामयाबी से उकता जल्द गोद से उतर भाग गया। 
  ” बहू। पहले भगवान का भोग लगा दो। आज तो भगवान ने हमारी मुंहमांगी मुराद पूरी कर दी।” 
  सुरैया रसोई में काम कर रही थी। बड़ी बहू निम्मो ने झोला पकड़ा। बेटी के सुखद भविष्य की कल्पना में वह ज्यादा ही खुश थी। पर जल्द ही उसकी वह असीमित खुशी गायब हो गयी। जब कालीचरण ने घर में सारा बृत्तांत बताया। तब ज्ञात हुआ कि रिश्ता तो तय हुआ है। पर सौम्या और दया में से किसे सैरावत जी अपनी बहू बनायेंगे, यह उनकी इच्छा पर ही निर्भर होगा। 
    अभी सौम्या का संबंध होने की पूरी संभावना थी। पर सौम्या की प्रतिद्वंदिता में दया को सुन निम्मो बैचेन हो गयी। दूसरी तरफ अपनी बेटी दया का संबंध होने की संभावना मात्र से सुरैया का मन मयूर नृत्य करने लगा। बहुमूल्य वही है जो कि दुर्लभ है। बिरादरी के हालात देख मोहन वास्तव में दुर्लभ माना जा सकता है। फिर दुर्लभ को प्राप्त करने के लिये मानस में कुछ न कुछ अपना तेरी रहती ही है। कालीचरण और जमुना के लिये भले ही दोनों लड़कियां समान थीं। फिर भी वास्तव में दोनों समान कब थी। बहनों के मध्य चचेरी की परिभाषा पहले ही ईश्वर ने गढ रखी थी। हालांकि ऐसे हालात में सगी बहनों का मन भी डोलने लगता है। एक बहन के भाग्य में इतना कुछ और दूसरी का भाग्य ईश्वर के आधीन तो मन में कुछ पीड़ा तो होती ही है। कई बार अपनों के सुख की खुशी का पवित्र जल भी खुद के भाग्यवादिता की अग्नि को भी बुझा नहीं पाता। 
  कुछ समय पूर्व जो दो बहनें एक दूसरे का हाथ पकड़ घर आ रहीं थीं, अब उनके मन में बहुत थोड़ा ही सही पर बैमनस्य का बीज बो चुका था। हालांकि अभी वह बीज मानस के शुष्क धरातल के भीतर दफन था। फिर भी पूरी संभावना थी कि अनुकूल हवा पानी को पाकर वह बीज अंकुरित हो सकता है। यदि समय रहते सचेत नहीं हुए तो ऐसी भी संभावना है कि धीरे-धीरे बैमनस्य की पौध से आरंभ हो वह एक विशाल बृक्ष बन जाये। जिसे काटने के लिये कोई भी कुल्हाड़ी पर्याप्त न हो। 
   अब कालीचरण के परिवार में ऊपर से सब पूर्ववत ही था। पहले की भांति एक ही रसोई बनती थी। पहले की ही भांति दोनों बहनें साथ साथ भैंसों को पानी पिलाने जाती थीं। फिर भी बहुत कुछ बदल रहा था। अब केवल खुद के लिये प्रार्थना की जा रही थीं। दो बहनों की मित्रता अब औपचारिकता की तरफ बढ रही थी। जो दो बहनें एक दूसरे की हमराज़ थीं, अब कुछ बातों को दूसरी से छिपाना सीख रहीं थीं। रात में साथ साथ शयन करने बाली दो बहनें अब रात में चुपचाप अपनी माताओं से ऐसे गुण सीख रहीं थीं कि लड़के बाले उसी पर मोहित हो जायें। फिर ऐसे कमाऊ लड़के की पत्नी और ऐसे धनी परिवार की बहू बनने का सौभाग्य केवल उसी को मिले। 
  जैसे जैसे समय बढता गया, मानसिक प्रतिद्वतिता बढती गयी। दोनों माताएं उस प्रतिद्वंदिता को बढाती रहीं। जो वास्तव में कुछ गलत भी नहीं है। एक माॅ हर हाल में अपनी संतान का ही हित देखना चाहती है। इस बात से अनजान कि असफल लड़की खुद को कैसे सम्हालेगी। कहीं यह पीड़ा उसके मन में स्थायी जगह न बना ले। कहीं प्रतिद्वंदिता की हार उसके जीवन को बुरी तरह तहस नहस न कर दे। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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